Wednesday, February 3, 2010

Antim Satya-Subhash Bose(Part Two)


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ऐसा था नेताजी का भारतीय जन मानस पर प्रभाव !

अब IIL के अध्यक्ष और INA के सुप्रीम कमांडर की हैसीयत से सुभाष ने PROVINCIAL GOVERNMENT OF FREE INDIA की नीवं रखी जिसे AXIS POWERS के सभी नौ सदस्य देशों द्वारा आधिकारिक मंजूरी दी गई !

श्री रास बिहारी बोस एवं कैप्टेन सरदार मन मोहन सिंह जी इसकी कार्यकारिणी के मंत्री एवं प्रभारी सदस्य बने !
INA की श्रेष्ठता के समय इसकी कुल क्षमता ८५,००० तक पहुँच गई थी ! यह सेना, आजाद हिंद सरकार PROVINCIAL GOVERNMENT OF INDIA के आधीन थी !

आजाद हिंद सरकार एक सुसंगठित सरकार थी ! इसने अपने डाक टिकट, मुद्रा, न्यायालय आदि की भी स्थापना की थी ! इस सरकार को नौ देशों का भी समर्थन प्राप्त था ! उन देशों के नाम थे:-जापान, बर्मा, थाईलैंड, इंडोनेशिया, रूस, जर्मनी, इटली, क्रोएशिया, तथा मंचूरिया !

नेता जी के नेतृत्व ने न केवल INA में एक नई स्फूर्ति उत्पन्न की, अपितु (जो सेना पहले केवल ब्रिटिश भारतीय कैदियों से बनी थी ) सुभाष की अपीलों ने जनता पर ऐसा प्रभाव डाला कि क्या बैरिस्टर और क्या बागान मजदूर, सभी ने देश की आज़ादी के लिए INA में शामिल होना शुरू कर दिया जिससे INA के सैनिकों की गिनती या शक्ति (STRENGTH) पहले से कई गुना बढ़ गई थी !

सैनिक शक्ति बढाने के लिए दो सैनिक संस्थान, जिनमें से एक तो INA के अफसरों O T S (OFFICER'S TRAINING SCHOOL) और दूसरा नागरिक सदस्यों को फौजी सिखलाई के लिए आजाद स्कूल की स्थापना की गई ! इन ट्रेनिंग सेंटरों के अधक्ष मेजर हबीबुर्रहमान थे !

INA के नौजवानों का एक दस्ता, जिसकी सदस्य संख्या ४५ थी, और जिन्हें सुभाष जी ने स्वयं चुना था ! उनको जापान की इम्पीरियल मिलिट्री अकैडमी में, फाइटर पाइलट की ट्रेनिंग के लिए भेजा गया था, और इस दल को एक प्यारा सा नाम दिया गया था-टोकियो ब्वाएस (TOKYO BOYS), इसी समय ही, सोवियत रूस के बाहर पहली बार, शायद एशिया महाद्वीप में स्त्रियों की एक रेजिमेंट 'रानी झांसी रेजिमेंट' खडी की गई थी, जो कि एक लडाकू दल था ! इसकी संख्या एक हज़ार तथा कमान 'लक्ष्मी स्वामीनाथन" ने संभाली थी !

जापानी फौज के जनरल कबाबे और सुभाष बोस के बीच INA को लेकर जो युद्ध नीति (WAR STRATEGY) बनाई गई थी, उसके अंतर्गत यह सुनिश्चित किया गया था कि INA, एक स्वतंत्र हैसीयत से य़ू-गो (U-GO) प्लान में लडेगी और किसी भी एक्शन प्लान में उसकी INA की कम से कम एक बटालियन अवश्य हिस्सा लेगी ! इससे कम में या जापानी सेना की कमांड में INA किसी एक्शन में हिस्सा नहीं लेगी !

INA का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व तथा हैसियत रहेगी !

INA के सुप्रीम कमांडर बनने के बाद सुभाष ने अपनी नागरिक वेश भूषा त्याग दी तथा सैनिक पोशाक धारण की ! उनकी सरकार में पांच मंत्री, तथा आजाद हिंद फौज के आठ सदस्य भी शामिल थे ! बाद में दक्षिण-पूर्व एवं पूर्वी एशिया से आठ और भारतीयों को सदस्यता प्रदान की गई थी !

सुभाष ने अपनी सेना को तीन भागों में विभाजित किया :-
१)- नेहरू ब्रिगेड,
२)- गाँधी ब्रिगेड, और
३)- आजाद ब्रिगेड

इन तीनों ब्रिगेड से चुनिन्दा सैनिकों को लेकर एक और ब्रिगेड खड़ी की गई थी जिसे नाम दिया गया-सुभाष ब्रिगेड ! इस ब्रिगेड की कमान शाहनवाज़ खान को सौंप दी गई ! इस कमांड को जापानी कमांड के तहत बर्मा के जनरल हेड क्वार्टर्स को सौंप दिया गया !

फौज की इन ब्रिगेड्स को दिए गए नामों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सुभाष नेहरू और गाँधी को तब भी सम्मान देते थे और वे भारत की स्वतंत्रता के लिए सभी में एकता बनाए रखना चाहते थे जबकि नेहरू और गाँधी ने सदैव, सुभाष के साथ धोखे ही किए !

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि १९४७ से लेकर १९६४ के सत्रह साल के अपने शासन में नेहरू ने भी सुभाष को न तो स्वतंत्रता सेनानी माना, न ही क्रांतिकारी ! आज भी भारत सरकार उन्हें यह सम्मान नहीं देती है ! तो सुभाष को भारत सरकार क्या मानती है- एक विद्रोही ? शायद हाँ ! इसीलिए उन्हें आजाद भारत में रहने देने के लिए ब्लैक मेल किया गया था जिसका खुलासा आगे किया जाएगा !

INA की पुन:स्थापना तथा "आरजी हकूमते हिंद" की स्थापना के छह माह के भीतर ही, INA ने अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को अपने कब्जे में ले लिया और वहाँ अपनी सेना के नियंत्रण और सरकार की स्थापना की !

लेफ्टिनेंट ए. डी. लोगानाथन को अंडमान निकोबार का प्रथम गवर्नर जनरल बनाया गया और अंडमान निकोबार का नाम बदल कर शहीद एवं स्वराज किया गया, परन्तु जापानी नेवी ने फिर भी अपना प्रभुत्व नहीं त्यागा ! वह द्वीप की मुख्य भूमि पर बनी रही ! २९ से ३१ दिसम्बर तक सुभाष ने अंडमान की यात्रा की और केवल एक रात ही वे इस द्वीप पर रुके ! सेल्युलर जेल में सुभाष को ले जाया गया था ! पूर्ण आवभगत भी की गई परन्तु जापानी सेना जो अत्याचार वहाँ पर द्वीप वासियों पर कर रही थी, उसकी भनक भी सुभाष को नहीं लगने दी गई !

अंडमान के ८० वर्षीय सिख नेता डाक्टर दीवान सिंह जी, जो INA के सदस्य भी थे, स्थानीय INA की शाखा के प्रमुख भी थे और वे स्थानीय लोगों का प्रतिनिधित्व भी कर रहे थे, तथा वे जापानियों पर दबाव भी बना रहे थे कि उन लोगों पर (स्थानीय द्वीप वासियों पर) अत्याचार न किए जाए,बहू -बेटियों के साथ बलात्कार बंद किए जाएं व निर्दोषों की हत्याएं बंद की जाएं !

इससे बौखला कर जापानियों ने डाक्टर दीवान सिंह जी को सेल्युलर जेल में बंद कर दिया और उन्हें इस उम्र में भी उलटा लटका कर भयंकर यातनाएं दी गईं तथा अंत में इनकी ह्त्या कर दी गई ! इस सेल्युलर जेल का निर्माण १९०६ में किया गया था !

जब सुभाष अंडमान का और सेल्युलर जेल का दौरा कर रहे थे तो जेल में ही डाक्टर दीवान सिंह तथा अन्य भारतीयों को यातनाएं दी जा रही थीं, जिसका पता सुभाष को शायद नहीं लगने दिया गया था !

अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की भारतीय जनता जिसकी संख्या लगभग ४०,००० थी, में से ३०,००० के लगभग निर्दोष निवासियों को जापानियों द्बारा कत्ल कर दिया गया था और द्वीप की लगभग सभी स्त्रियों से बलात्कार किए गए थे !

डाक्टर दीवान सिंह और अन्य शहीदों की याद में अंडमान में अब एक गुरुद्वारा बनाया गया है जिसकी प्रबंध कमेटी में हिन्दू, सिख, मुस्लिम तथा ईसाई, सभी धर्म के लोग इस गुरुद्वारे के सदस्य हैं और मिलकर इस गुरुद्वारे का प्रबंध देखते हैं !

सिख गुरुओं के अतिरिक्त किसी भी गुरुद्वारे का नामकरण किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं होता ! यही अकेला गुरुद्वारा शायद ऐसा है, शायद पूरे संसार में विलक्षण है जिसका नाम डाक्टर दीवान सिंह जी के नाम पर रखा गया है !

स्थानीय निवासियों द्वारा अनेकों निष्फल प्रयत्नों के बावजूद, कि किसी प्रकार सुभाष चन्द्र बोस से संपर्क हो सके और वे अपनी व्यथा सुभाष को सुना सकें, दुखी होकर ए. डी. लोगानाथन ने अपनी गवर्नर जनरल की पदवी लौटा दी और वापस रंगून लौट गए !

युद्ध की रण-नीति को अंतिम रूप देने के लिए एक बैठक बुलाई गई ! इस बैठक में सुभाष और जापान की ओर से सेनापति फील्ड मार्शल काउंट तेराची उपस्थित हुए ! तेराची INA की सफलता को संदेह की द्रष्टि से देखता था ! अंत में यह सहमति हुई कि आजाद हिंद फौज की एक रेजिमेंट सर्वप्रथम जापानी सेना के साथ युद्ध पर उतरे, यदि उसे सफलता प्राप्त होती है तो अगले मोर्चे में आजाद हिंद फौज के सभी सैनिकों को उतार दिया जाएगा !

जब जापानी सेना ने भारतीय मोर्चों पर युद्ध आरम्भ किया तो INA की प्रथम डिविजन आर्मी, जिसके तहत चार गुरिल्ला रेजिमेंट थीं ! अराकान के युद्ध में अलग अलग क्षेत्रों में फैल गई थीं ! एक बटालियन तो चटगाँव के मोदोक तक जा पहुँची थी ! यह बटालियन शाहनवाज़ की कमांड में थी और यह ४ फरवरी १९४४ की घटना है ! दुश्मन के बमों का सामना करते हुए यह सेना कालादान नदी पार कर पलेखा और डलेटमो को कब्जे में लेकर आगे बढ़ी ! रात में मोदेक चौकी पर हमला बोलकर सुभाष ब्रिगेड और जापानी सैनिकों ने उसे अपने अधिकार में ले लिया !

यहाँ परिस्थितियाँ विपरीत थीं ! रसद का पहुंचना भी दुष्कर एवं असंभव था, इसलिए जापानी सेना ने INA को वापस लौटने का हुक्म दिया परन्तु जांबाज़ देश भक्त सैनिकों ने इस हुक्म को मानने से इनकार कर दिया और प्रत्यूत्तर में कहा कि, "रसद मिले या न मिले, हमें दिल्ली पहुंचना है और लाल किले पर तिरंगा फहराना है "
उधर शौकतअली की कमांड में, बहादुर ग्रुप की एक यूनिट अप्रैल १९४४ के प्रारम्भ में मोइरांग के बार्डर तक जा पहुँची थी !

DIRST DIVISION, मुख्यतः U-GO में अपना प्रभुत्व बनाए हुए थी और मणिपुर तक जा पहुंची थी ! इसकी सुरक्षा में जापनी सेना ने अपनी बढ़त बनाते हुए चिट-विन नदी को पार किया और नागा पहाडियों तक जा पहुंची ! फिर अग्रिम मोर्चों को फतह करती हुई तामू होते हुए इसने इम्फाल का रुख किया ! जब तक खान की कमांड में INA की फौज तामू छोड़ती, अग्रिम मोर्चों पर आक्रमण हो चुका था तथा फौजों को कोहिमा की ओर जाने का आदेश दे दिया गया था !

उधर मुख्य भारत भूमि में, मोइरांग जो इम्फाल, मणिपुर से लगभग३० मील ( ४५ किलो-मीटर) दूर है, प्रथम बार तिरंगा, जो कांग्रेस पार्टी के तिरंगे से मिलता-जुलता था, INA द्वारा फहराया गया !





यहाँ उत्तर-पूर्व में कोहिमा (नागालैंड) और इम्फाल में INA ने कब्ज़ा किया था ! यह कार्रवाई जापान, बर्मा की सेना और INA की गाँधी और नेहरू ब्रिगेड द्बारा संचालित की गई थी !

इस कार्रवाई को OPERATION U-GO का नाम दिया गया था ! यहाँ पर ब्रिटिश सेना ने कब्जे के विरुद्ध भयंकर युद्ध किया ! जैसे ही जापान की अग्रिम पंक्तियों ने युद्ध का धावा बोला, INA ने भी अपनी सेना को युद्ध में उतार दिया ! INA की रण-नीति थी -गुरिल्ला युद्ध की, क्योंकि INA के पास हथियारों, भारी तोपखाने और रसद की भी भारी कमी थी !

अत: युद्ध कौशल के लिए सुनियोजित प्लानिंग की गई थी कि जब जापान की अग्रिम सेना उत्तर पूर्व की पहाडियों पर ब्रिटिश भारटीय सेना पर हमला करेगी तो INA के सैनिक गंगा के मैदानी इलाकों में पहुंच कर, नागरिकों की सहायता से और जनता के हर वर्ग में प्रोपेगेंडा (प्र्चार) करके अंग्रेजों के खिलाफ क्रान्ति की घोषणा और विद्रोह करेंगे तथा छापामारी युद्ध जारी रखेंगे !

उधर जापान पर हुए दो अमेरिकी अणु बमों के धमाकों ने, जापान को मित्र-राष्ट्रों के आगे घुटने टेकने को मजबूर कर दिया !

जब तक खान के नेतृत्व में INA उरवरूल तक पहुंची, तब तक जापानी सेना ने धीरे-धीरे कोहिमा से पीछे हटना शुरू कर दिया था !

INA की प्रथम डिविजन जो कोहिमा में थी, उसका भी वही हाल हुआ जो गुतामुची के नेतृत्व में जापानी सेना का हुआ था ! अब वे नाम मात्र की भोजन सामग्री (रसद) पर निर्भर थे !

किस्मत की मार और इस देश का दुर्भाग्य ! कि इम्फाल में मानसून भी लगभग १५ दिन पहले ही आ गया ! जापानी मदद और रसद के अभाव में, भूखे-प्यासे INA के सैनिक आत्म-समर्पण के लिए मजबूर हो गए थे ! फौज की सप्लाई बाधित हो चुकी थी ! दुश्मन (मित्र-राष्ट्रों द्बारा हवाई हमले) हवाई आक्रमणों तथा बर्मा के विद्रोहियों द्वारा विरोध से INA तथा जापानी सेना की कमर तोड़ दी ! वे (INA तथा जापानी सेना), वापिस जाने को मजबूर हो गए !

अपने देश की मिटटी को छोड़कर इन वीर सैनिकों को फिर लौटना पडा ! ऐसा दुर्भाग्य था उन अभागे, देश भक्त वीर सैनिकों का, जो देश को स्वतंत्र कराने के लिए लड़ रहे थे !

बर्मा के सैनिकों को भी INA की 15th Army के साथ यही सब कष्ट झेलने पड़े ! वापस बर्मा लौटते हुए बहुत से देश भक्त सैनिक, भूख और जख्मों की ताब न सहते हुए मार्ग में ही वीर गति को प्राप्त हुए !

INA को अपने सैनिक तथा युद्ध के साजो-सामान का बहुत नुक्सान उठाना पडा और इस तरह अब INA-बर्मा में फिर से आ गई !

१९४५ के आरंभ में मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने बर्मा को अपना निशाना बनाया तो INA बर्मा की रक्षा के लिए कटि-बद्ध हो उठी ! अब यह जापानी रक्षा पंक्ति का हिस्सा थी ! सेकंड डिविजन आर्मी को इरावाडी की रक्षा का भार सौंप दिया गया तथा न्यान्ग्यु की रक्षा भी इसी के जिम्मे थी ! इसका मुख्य प्रतिरोध मैसेबी की सातवीं डिवीजन से हुआ !

जब यह सातवीं डिवीजन पान्गान की नदी पार कर, न्यान्ग्यु से होते हुए इरावाडी की ओर बढ़ी ! बाद में दूसरी तरफ मेकतिला और पोपा पहाडी पर हुए युद्ध में इस सेकंड डिवीजन INA ने ब्रिटिश सेना की सत्रहवीं डिवीजन को रोक दिया जिससे जनरल किमुरा की फौजें न्यान्ग्यु और मेकतिला को वापस जीत सकें !

अंत में, INA की और जापानी सैनिक टुकडियों को, रंगून से BA-MAW की सरकार के पतन के साथ ही पीछे हटना पडा ! वे प्रथम डिवीजन के बचे-खुचे सैनिकों और रानी झांसी रेजिमेंट की टुकडी के साथ सिंगापुर की ओरचले गए !

रंगून में लेफ्टिनेंट कर्नल ए.डी.लोगानाथन की कमांड में लगभग ६००० INA के सैनिकों ने ब्रिटिश सेना के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया !

बचे हुए सैनिकों तथा INA की सेना ने सुभाष के साथ मलाया तथा थाईलैंड की ओर प्रस्थान किया !

जापान की हार से INA को भी हार का मुंह देखना पडा ! INA की हार का प्रमुख कारण जापान की हार था !

सुभाष INA के सैनिकों को "चलो दिल्ली" (ON TO DELHI) के नारे से प्रेरित किया करते थे जिससे निर्वासित भारतीयों तथा भारतीय सैनिक कैदियों में देश - प्रेम की भावना जाग्रत होती थी !
मध्य अगस्त में, सिंगापुर में हार के कारणों पर विचार करने, भविष्य की योजना निर्धारित करने और सुभाष बोस तथा IIL के पदाधिकारियों, तथा INA के उच्च-पदस्थ अधिकारियों के आत्म-समर्पण पर विचार-विमर्श किया गया !

यह निर्णय किया गया कि बाकी सभी अधिकारी अंग्रेजों के समक्ष आत्म-समर्पण कर देंगे लेकिन सुभाष बोस को आत्म-समर्पण नहीं करने दिया जाएगा ! सभी को डर था कि सुभाष के आत्मसमर्पण से देश को कोई फायदा नहीं होगा अपितु सुभाष की जान को ख़तरा अवश्य ही उत्पन्न हो जाता अंग्रेज, उन्हें गोली मार सकते थे!
अत: सुभाष को जापान जाने और वस्तु-स्थिति के अनुसार निर्णय लेने के लिए कहा गया !

१६ अगस्त १९४५ को सुभाष अपने कुछ चुनिन्दा साथियों के साथ जिनमें मेजर जनरल शाहनवाज़ खान, कर्नल हबीबुर्रहमान, कर्नल प्रीतम सिंह, PRO नायर तथा कुछ अन्य साथियों के साथ सिंगापुर से वायुयान द्वारा बैंकाक चले गए !

अगले दिन १७ अगस्त १९४५ को सुभाष को सैगोन (कम्बोडिया) से मंचूरिया होते हुए टोकियो (जापान ) जाना था ! यहाँ बैंकाक से सुभाष के साथ सिर्फ शाहनवाज़ खान, हबीबुर्रहमान ही गए, बाकी साथी बैकाक में ही रुक गए ! सैगोन पहुँच कर रात रुके और फिर सुभाष ने आगे टोकियो की ओर जाना था परन्तु जापानियों ने जहाज़ में जगह न होने की बात कही और सुभाष जो को एक सीट दी जिससे वे अकेले सफ़र कर सकें परन्तु सुभाष के अधिक जोर देने पर जापानियों ने एक और साथी को साथ लेने की इजाजत दे दी, अत: कर्नल हबीबुर्रहमान को सुभाष ने अपने साथ लिया और शाहनवाज़ वहीँ रुक गए !

२३ अगस्त १९४५ को रेडियो टोकियो ने एक खबर प्रसारित की कि, "नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का १८ अगस्त १९४५ को ताइवान (उस वक़्त फारमोसा) के ताइहोकू हवाई अड्डे पर, वायुयान के उड़ान भरते हुए दुर्घटना ग्रस्त हो जाने से, मृत्यु हो गई थी और जिनका कि संस्कार ताइहोकू में ही, उनके साथी कर्नल हबीबुर्रहमान द्वारा २१ अगस्त की रात्रि को कर दिया गया !"

यह समाचार सुनकर सारा राष्ट्र सकते में आ गया जनता को यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसका नायक ऐसी त्रासदी को भी प्राप्त हो सकता था !

अंग्रेजों को भी इसका विश्वास नहीं हुआ ! २५ अगस्त १९४५ को हुई बैंकाक की एक मीटिंग का एजेंडा भी इसकी पुष्टि करता है, इस मीटिंग का केवल एक ही मुद्दा (एजेंडा) था- सुभाष !

"९ जुलाई १९४३ में सिंगापुर में हिन्दुस्तानियों को संबोधित करते हुए सुभाष ने कहा था कि,"अब समय आ गया है कि जब मैं सम्पूर्ण विश्व को बता सकता हूँ, विशेषत: अपने दुश्मनों को भी, कि राष्ट्र की आज़ादी का मसौदा किस प्रकार तैयार किया जा सकता है ! वह भारतीय सेना इतनी शक्तिशाली होगी कि ब्रिटिश भारतीय सेना पर आक्रमण कर सके ! जब हम ऐसा करेंगे, एक क्रान्ति की शुरुआत होगी, न केवल भारतीय जनता के घरों में, अपितु भारतीय सेना में भी जो कि ब्रिटिश झंडे के नीचे है ! जब इस तरह ब्रिटिश सरकार पर दोनों तरफ से हमला होगा, भारत और भारत के बाहर से, तो यह सरकार समाप्त हो जाएगी और इस तरह भारतीयों को पूर्ण आज़ादी प्राप्त होगी ! मेरी योजना के अनुसार, धुरीय शक्तियों का, इस प्रकार भारत को सहयोग देना भी आवश्यक नहीं होगा ! इस तरह अंग्रेजों को भारत के बाहर खदेडा जा सकेगा और ३८ करोड़ देशवासियों को गुलामी से मुक्ति दिलाई जा सकेगी !"

यह था नेता जी का भारतीयों के नाम सन्देश, उनकी योजना तथा भारतीयों से अपेक्षा, जिससे वे भारत-भूमि को फिरंगियों से मुक्ति दिलवा सकें और आजाद भारत का सपना पूरा कर सकें !

युद्ध उपरांत, युद्ध की परिणति का परिणाम यह दिखाई दिया कि INA के सेनानी जो सारे दक्षिण पूर्व में फैले हुए थे, उनमें गहरा विद्वेष तथा क्षोभ दिखाई दिया ! अब जबकि ये सेनानी पानी के जहाजों से वापिस भारत लाए गए तो उन्हें यह जान कर अत्यंत दुःख हुआ कि अधिकतर भारतीय, उनके संग्राम और उनकी कुर्बानियों से अनभिग्य थे ! यहाँ तक कि INA के एक अफसर ने भारत भूमि पर कदम रखते ही यह प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, "कि एक कुत्ता भी नहीं भौंका जब हमें वापस लाया गया !"

यह उनकी अंतर्वेदना ही तो थी !

परन्तु जापान की हार के कुछ दिनों के भीतर ही अंग्रेजों ने INA की समस्या पर ध्यान केन्द्रित कर दिया था ! लन्दन में तो यह फैसला दिल्ली पर छोड़ दिया था परन्तु दिल्ली दुविधा में थी और यह प्रशासन के गले नहीं उतर रहा था कि सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु हो चुकी है (रेडियो टोकियो द्वारा यह समाचार २३ अगस्त १९४५ को प्रसारित किया गया था !"

इसके एक दिन बाद ही यानि २४ अगस्त १९४५ को ही लार्ड वेवेल ने अपनी डायरी में लिखा, "जापान सरकार की इस घोषणा से मैं आश्चर्यचकित हूँ कि सुभाष की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गई है ! मुझे इस पर शक है परन्तु मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि सुभाष के अंतर्ध्यान (अलोप) होने से क्या हासिल होगा ?"

उसने होम मेम्बर (सरकार के एक सदस्य) सर आर.एफ.मूडी(Sir R F MOODIE) से सुभाष चन्द्र बोस और INA पर मुकद्दमा चलाने के लिए भी कहा था ! युद्ध अपराध की श्रेणी में बोस को शामिल करने के लिए मूडी को कोई ठोस प्रमाण नहीं मिले थे ! उसके सलाहकार भी मुकद्दमें के परिणामों को लेकर आशंकित थे ! गृह-मंत्रालय ने एक टिप्पणी भी, सुभाष के विषय में अपनी आशंकाओं को अवगत कराते हुए लिखी थी ! INA के सैनिकों से, और दक्षिण-पूर्व में बसे भारतीयों से की गई जांच में भी इसकी पुष्टि ही हुई थी, और कि इससे सुभाष के प्रचार को ही बल मिलता !

सुभाष चन्द्र बोस की प्रसिद्धि, जापानियों के हाथ की कठपुतली न होकर INA और सुभाष के स्वतंत्र व्यक्तित्व एवं पहचान की थी ! सुभाष ने जर्मनी का सहयोग लेकर भारत देश की प्रथम राष्ट्रीय सेना की स्थापना की थी, दूसरी सेना के, जापानियों का सहयोग लेकर सुप्रीम कमांडर बन कर उस सेना को भी राष्ट्रीय सेना का स्वरूप ही दिया था ! इस सेना से सुभाष का सम्मान और भारत का गौरव जुड़ा था, विशेषत: बंगाल में- जहां किसी भी तरह सुभाष का स्थान गांधी से कम न था !

बहुत से ऐसे विचारों से.जिनकी आड़ में सुभाष पर कोई मुकद्दमा चलाया जा सकता था, उनमें से बेहतर तरीका था कि, "सुभाष के खिलाफ किसी कार्रवाई को कोई अंजाम न देना !"

जनता का दबाव भी, भारत में ऐसी किसी कार्रवाई की इजाजत नहीं देता ! इसके लिए तो बर्मा सरकार भी राजी नहीं होती और इसके लिए किसी भी किस्म के सहयोग के लिए इनकार कर देती ! इसी तरह सिंगापुर या अन्य किसी भी स्थान पर सुभाष के विरुद्ध, कोई भी कार्रवाई अंग्रेजों के लिए परेशानी का कारण ही बनती !

सैनिक कार्रवाई द्वारा गोली मारना, इस समस्या का फौरी हल हो सकता था परन्तु इसके लिए किसी भी प्रकार की दलील नहीं दी जा सकती थी और सैनिक पदाधिकारी भी इसे केवल स्वतंत्रता के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ही इसका कोई हल तलाशने की सलाह देते !

सुभाष को क़ैद में डालने का मतलब, उनकी रिहाई के लिए होने वाले आंदोलनों को बढावा देना ही होता !

यही सब इस टिप्पणी में कहा गया था !

सबसे आसान तरीका था -सुभाष जहां हैं, वहीं रहने दो और उनकी तलाश मत करो !

ऐसा अंदेशा था कि रूसी ही केवल, उनके (सुभाष) के स्वागत के लिए तैयार होते ! इससे कुछ राजनीतिक समस्याएं तो उत्पन्न होतीं परन्तु सुरक्षा सलाहकारों की द्रष्टी में, सुभाष का रूस में होना भी उतना ही खौफनाक था जितना सुभाष का स्वयं बाहर रहकर भी कार्य करना होता !

अत: अंग्रेजों ने सुभाष की तलाश बंद कर दी और भारत सरकार को भी यही सलाह दी गई कि यदि भविष्य में सुभाष का पता भी चल जाता है तो उसे कोई महत्व न दिया जाए !

जाने-माने जर्नलिस्ट श्री अनुज धर ने गुप्तचर विभाग की एक सूचना का हवाला देते हुए लिखा है कि महात्मा गांधी को भी इसकी जानकारी थी कि सुभाष जीवित हैं और कि वे रूस में हैं !

इस रिपोर्ट में यह लिखा गया था कि नेता जी सुभाष बोस जीवित हैं और वे रूस चले गए हैं ! इसकी सम्पूर्ण जानकारी रूसियों एवं कांग्रेसियों को है ! यहाँ कांग्रेसियों का अभिप्राय- गाँधी और नेहरू से है !

गांधी के सचिव द्वारा एक पत्र अमेरिकी राष्ट्रपति के सलाहकार को भेजा गया था जिसमें लिखा था, "यदि रूसियों की मदद से बोस भारत आ जाते हैं तो न तो गांधी और न नेहरू, देश वासियों के प्रति उत्तरदायी सिद्ध होंगे !"

अमेरिकी गृह मंत्रालय को यह भी कहा गया था कि, "भारतीय जन मानस में सुभाष के प्रति अगाध श्रद्धा है जो कि वर्णन से बाहर है ! यदि वे (सुभाष) वापिस लौटते हैं तो देश की राजनीतिक स्थिति में जो परिवर्तन होंगे - उनकी कल्पना भी अवर्णनीय है !"

अमेरिकी ग्रह मंत्रालय से यह भी स्पष्ट करने के लिए कहा गया था, "कि क्या सुभाष जीवित हैं ? या वास्तव में उनकी मृत्यु हो गई है ?"

अमेरिकयों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया था जबकि ये अमेरिकी ही थे जिन्होंने सर्वप्रथम सितम्बर १९४५ में ही ताइवान जा कर, हवाई दुर्घटना और सुभाष की मृत्यु की जांच की थी !

सुभाष के भाषणों के कुछ अंश :--
१)- दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो सोचते हैं कि ऐसे साम्राज्य का, जिसमें सूर्य नहीं डूबता, का अंत होना नामुमकिन है ! ऐसा कोई विचार मुझे कष्ट नहीं पहुंचाता ! इतिहास से मैंने यह सीखा है कि प्रत्येक साम्राज्य का पतन और अंत अवश्यम्भावी है, और यह तो मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है कि कई शहर और किले, गगन चुम्बी इमारतें जो शान से खडी थीं, वक़्त के थपेडों ने उन्हें धूल में मिला दिया है ! आज ब्रिटिश साम्राज्य की कब्रगाह पर खड़े एक बालक को भी यह भरोसा होगा कि विशाल ब्रिटिश साम्राज्य बीते कल की बात बन चूका है ! वर्तमान में, मैं तुम्हें जीवन में भूख-प्यास, तुम्हारा अपनापन, बल पूर्वक सामरिक मार्च और मृत्यु के अतिरिक्त कुछ नहीं दे सकता, परन्तु यदि तुम जीवन से लेकर मृत्यु तक मेरा अनुसरण करोगे तो मैं तुम्हें, तुम्हारी आज़ादी और विजय का मार्ग प्रशस्त करूंगा- चलो दिल्ली चलो दिल्ली !
(नेता जी का INA को संदेश ९ जुलाई १९४३, सिंगापुर)

२)- अपनी आज़ादी को अपने खून से सींचना हमारा कर्तव्य है, जो स्वतन्त्रता अपने बलिदान और प्रयत्नों से हम प्राप्त करेंगे, उसे हम अपनी शक्ति से संभाल सकेंगे !
(नेता जी द्वारा - INA को मलाया/ सिंगापूर)

३)- हमें आज यह प्रण लेना होगा, मृत्यु की ऐसी इच्छा-कि हम मरें परन्तु हमारा भारत जिए......एक शहीद की मौत की इच्छा, जिससे शहीद के खून से आज़ादी का मार्ग प्रशस्त हो ......साथियों ! मेरी आज़ादी की लड़ाई के सिपहसालारों ....... आज मैं तुमसे एक मांग करता हूँ ! सबसे बड़ी मांग ! मुझे अपना खून दो ! यह खून ही केवल उस चिंगारी को बुझा सकता है जो दुश्मनों के खून से बुझेगी ! यह वो खून होगा जो आज़ादी पर बलिदान होगा !
तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा !
(नेता जी बर्मा में, ४ जुलाई १९४४)

४)- खून, खून को पुकार रहा है -हमारे पास व्यर्थ गंवाने के लिए समय नहीं है ! हमारे आगे वह मार्ग है जिस पर शहीद चलते हैं ! शहादत के इसी मार्ग से चलते हुए, दुश्मनों की छाती चीर कर हमें आगे बदना है, तथा यदि ईश्वर की यही इच्छा हुई तो हम शहीद की मौत मरेंगे ! अंत में मृत्यु को प्राप्त करते हुए हम उस मिटटी को चूमेंगे जिससे होते हुए आज़ादी के मतवालों की सेना दिल्ली की ओर बढेगी ! दिल्ली की ओर का रास्ता आज़ादी का रास्ता है !
चलो दिल्ली - चलो दिल्ली !!

५)- सैनिक बनकर तुम्हें हमेशा यह याद रखना चाहिए और तीन आदर्शों को सदैव हृदय में बिठाना चाहिए ;
निष्ठां,
कर्तव्य, और
बलिदान की भावना !
सैनिक जो राष्ट्र के प्रति निष्ठावान हो, बलिदान के लिए तत्पर हों, वे जीवन में कभी हार नहीं सकते ! यदि तुम भी जीवन में अजेय रहना चाते हो तो अपने हृदय में इन तीन गुणों को स्थान दो !

६)- मैं स्वयं को करोडों देश वासियों की सेवा करके गौरवान्वित महसूस करता हूँ जो विभिन्न धर्मों में विश्वास रखते हैं ! मैं स्वयं को उन ३८ करोड़ भारतीयों के लिए अपना जीवन समर्पित करता हूँ और उनमें से प्रत्येक को यह विश्वास दिलाता हूँ प्रत्येक देश वासी मुझ में विश्वास करे ! तभी राष्ट्रीयता, पूर्ण न्यायिक द्रष्टिकोण तथा बिना भेदभाव के आज़ादी की फौज खडी की जा सकेगी ! ३८ करोड़ की यह जनता, जो पृथ्वी पर मनुष्यों की संख्या का 5 वां भाग है ! उन्हें हक है की वे आज़ादी में सांस लें और वे अब आज़ादी के लिए हर कीमत चुकाने के लिए तैयार भी हैं ! दुनिया में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो हमारी आज़ादी के जन्मसिद्ध अधिकार को कभी भी हमसे छीन सके !
(२६ अगस्त १९४३- INA का सम्पूर्ण चार्ज लेते हुए)

७)- हमने अपनी आज़ादी की इस मुहिम से क्या हासिल किया है ? हमने अग्नि से दीक्षा ली है ! हमारे कुछ भूतपूर्व नागरिक (गैर सैनिक सदस्य), जिन्हें अपने स्थान को छोड़कर वापिस आने का आदेश दिया गया था परन्तु उनहोंने अपनी संगीनें लगाकर, दुश्मन पर ऐसा धावा बोला कि वे विजयी होकर लौटे !

हमारे सैनिकों का आत्मबल और विश्वास बढ़ गया है हमें यह ज्ञात हो चुका है कि हमारे दुश्मनों के भारतीय सैनिक हमारे साथ आना चाहते हैं ! हमें उनके स्वागत के उचित प्रबंध करने होंगे ! हम अपने दुश्मनों की चालों को समझते हैं ! हमने दुश्मन के कई भेद प्राप्त किए हैं जब हमने यह जंग शुरू की थी तो जापानियों को हम पर भरोसा नहीं था तथा वे हमें छोटी टुकडियों में बांटकर अपने साथ रखना चाहते थे ! मैं अपनें सैनिकों के लिए फ्रंट (युद्ध) पर मुख्य भूमिका चाहता था जो अंत में जापानियों को हमें देनी पडी !

हमनें अपनी कमजोरियों को भी पहचान लिया है ! उबड़-खाबड़ रास्तों पर ट्रांसपोर्ट और सप्लाई परिपूर्ण न थी ! हमारे पास युद्ध के लिए उचित प्रोपेगेंडा (प्रचार-प्रसार माध्यम) नहीं था हालांकि हमारे पास इसके लिए उचित व्यक्ति थे ! ट्रांसपोर्ट के अभाव में हम इनका उपयोग दुश्मन का मनोबल तोड़ने के लिए नहीं कर सके ! अत अब से INA की हर टुकडी (यूनिट) में, प्रोपेगेंडा करने वालों की भी उचित स्थिति होगी ! हमें इसके लिए लाउड-स्पीकरों की भी आवश्यकता थी, जिसे जापानी उचित संख्या में हमें नहीं उपलब्ध करा सके ! अब इनका निर्माण हम स्वयं कर रहे हैं !
(१३ अगस्त १९४४ WHY INA WITHDREW से साभार)

इसके साथ ही दक्षिण-पूर्व के भारतीयों को सुभाष ने अपने अंतिम भाषण में. १७ अगस्त १९४५ को यह कहा था -भारत अवश्य आजाद होगा !

(जर्मनी की आजाद हिंद सेना के एक सेनानी की आत्मकथा)
यह सत्यकथा "सम्पादक - गढ़-गौरव' कोटद्वार के श्री कुंवर सिंह जी नेगी 'कर्मठ' के सौजन्य से (RGR Garhwal Rifles) के एक जवान द्वारा आप बीती सुनाई जिसमें मैं उन अमर सेनानियों के जीवन के अमूल्य घटनाक्रम को पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ ! आज २००९ में, गढ़वाल में इन कर्मठ सैनिकों में से शायद ही कोई बचा हो परन्तु अपनी स्मृतियों को श्री कुंवर सिंह जी नेगी कर्मठ जी, के पास वे सुरक्षित छोड़ गए हैं ! यहाँ प्रस्तुत लेख हमें श्री अमर सिंह भंडारी, वारंट आफिसर, आजाद हिंद फौज के व्यक्तिगत तजुर्बे (अनुभव), उन पर अंग्रेजी सरकार के जुल्म की एक मुंह बोलती दास्तान है जिसे पढ़कर पाठकों के रोंगटे खड़े हो जाएंगे परन्तु इन जवानों का हौंसला कम नहीं हुआ था, जितना जुल्म किया जाता था उतना ही हौंसला और बढता था !

धन्य हैं ये INA के अमर सेनानी ! जिन्होंने अपना सर्वस्व मातृ-भूमि पर न्योछावर कर दिया !

यह लेख १९८४ में श्री अमर सिंह भंडारी जी ने, श्री कुंवर सिंह नेगी को सुनाई आप-बीती से सधन्यवाद लिया गया है !

जब आजाद हिंद फौज का गठन, ट्रेनिंग आदि कार्य पूरा हो गया तो उसके पश्चात अलग अलग बटालियन, व कंपनियों को अलग अलग जगहों पर भेजा गया ! कोई फ्रांस, कोई इटली, कोई बेल्जियम तो कोई हालैंड आदि जगहों पर भेजे गए ! इन भारतीयों ने उन सभी जगहों में आजाद हिंद फौज का प्रचार व प्रसार प्रारम्भ किया ! सभी जवानों व अफसरों ने, जिसे भी जो-जो कार्य सौंपा गया, सभी ने निष्ठा पूर्वक पूर्ण किया !

इस बीच कई स्थानों पर अंग्रेजों से भिडंत भी हुई ! उधर नेता जी १९४३ में जर्मंबी में हिटलर के सहयोग से, एक अन्य भारतीय अफसर मेजर आबिद हसन के साथ पनडुब्बी द्वारा सिंगापुर चले गए ! मेजर आबिद हसन का जन्म, जर्मनी में ही हुआ था !

यह भी पता चला है कि प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत (१९१४-१८) जो भारतीय, यूरोप में रह गए थे, उनकी वहीं पर शादी हुई और जो संतानें पैदा हुईं, वे स्वयं को भारतीय कहलाना अधिक पसंद करते थे ! ऐसे लोगों में से भी अधिसंख्य में लोग आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए थे ! मेजर आबिद हसन का भी यही कहना था कि उनके पिता भी बनारस के रहने वाले थे और माता जी जर्मनी की थीं ! जब नेता जी ने जर्मनी से जापान को प्रस्थान किया तो आजाद हिंद फौज जर्मनी के नेतृत्व में, कुशल भारतीयों, एक श्री नाम्बियार और दुसरे श्री एस के लाल को सौंप कर गए थे !

इसके बाद नेता जी तो जापान चले गए, परन्तु भारतीयों के दिल में जो स्वतंत्रता की अलख वे जलाकर गए वह बुझने नहीं पाई, उसने और भी प्रचंड रूप धारण कर लिया ! आजाद हिंद फौज का मिशन अविचलित रूप से चलता रहा, किन्तु दुर्भाग्यवश जर्मनी की पराजय, प्रारम्भ होने लगी ! सभी मोर्चों से जर्मनी सेना धीरे-धीरे पीछे हटने लगी ! यहाँ तक कि चारों ओर से सेना हटते- हटते, जर्मनी में ही इकट्ठा होने लगी !

आजाद हिंद फौज के जवान भी सभी मोर्चों से वापस आने लगे ! फिर अलग-अलग जगहों के मोर्चों से, आजाद हिंद फौज के जवान, अंग्रेजों के हाथों क़ैद होने लगे ! इधर हमारी कंपनी फ्रांस के नारमंडी साइड से रिटायर जर्मन सेना के साथ लक्सम्बर्ग में अटेच (ATTACH) हुई और फिर लक्सम्बर्ग से हुस्यान, पेरील, ब्रोडकल, डी-जोल होते हुए वापस लेन-हेम के रास्ते हेमबर्ग, जर्मनी जा पहुंची ! यह दूरी हमने साइकिलों से पार की ! मेरा अंदाजा है कि कुल सफ़र १२०० से १४०० मील (लगभग २०० किलो मीटर) का रहा होगा ! यह सफ़र साइकिलों से पूरा हुआ !

हमारी नंबर २ बटालियन हैम्बर्ग में, अंग्रेजों के फ्रांसी थालम के हाथों क़ैद हुई ! वहाँ से हम सभी कैदियों को मोटरों द्वारा बेल्जियम ले आया गया ! वहाँ मार्शल नामक शहर में हमें ले जाया गया ! वहाँ अमेरिकी सेना का पहरा था ! वहाँ से हमें मोटरों द्बारा इटली के टारीनो (TURINO) बंदरगाह पर ले जाया गया !

वहाँ पर एक नृत्य मंडळी अंग्रेजों की तरफ से कैदियों को अपना कार्यक्रम दिखाने को भेजी गई थी! उस मंडळी में एक छोटी लडकी, जिसकी उम्र लगभग १३-१४ साल की थी, उसने यह गाना गाया था :--
"दूर हटो ! दूर हटो ! ऐ दुनिया वालो !
हिन्दुस्तान हमारा है !"

इस पर हमने लडकी को यह समझाया कि वह गाये;.......................
"दूर हटो ! दूर हटो ! इंग्लिश हो या अमरीकी !
हिन्दुस्तान हमारा है !
(संगीनों के साए में भी देश भक्ति के ही अफ़साने गाए जा रहे थे)

कैदियों के बयान;

इसके बाद कैदियों का बयान लेने वाला एक अंग्रेज कैप्टेन, जो कि आजाद हिंद फौज में डाक्टर का काम करता था, बयान लेने लगा इसके बाद कुछ कैदियों को इंग्लैंड तथा कुछ कैदियों को बम्बई भेज दिया गया !

बम्बई बंदरगाह से रेलवे स्टेशन तक दोनों तरफ संगीनों के पहरे के बीच हमें रेल में बिठाया गया ! रेल द्वारा हम लोगों को बहादुरगढ़ जेल में ले जाया गया ! (लेखक के विचार में यह किला बहादुर गढ़ है जो पटियाला के पास है और जिसे पंजाब सरकार ने जेल बनाया हुआ है) हमारी नंगी तलाशी लेने के पश्चात हमें जेल में डाल दिया गया !

करीब १२-१३ पिंजरे या (CAGES) बनाए गए और ५०-५० कैदियों को अलग अलग लगभग १००-५० की संख्या में बांटा गया !

"आजाद हिंद फौज में न रहना साबित करने की कोशिश "

अंग्रेजों का प्रयास था कि हम कैदियों को डरा-धमका कर तथा समझा-बुझा कर वे हमें तैयार करेंगे ताकि लोग यह समझें कि यह लोग, यह न बताएं कि ये लोग आजाद हिंद फौज में थे !

जब हमने उनकी कोई बात न मानी तो उनहोंने हमें सताना तथा तंग करना शुरू किया ! कुछ दिनों बाद एक एंग्लो-इंडियन जो कैम्प कमांडेंट था, उसने एक कैम्प में आने की कोशिश की तो हाथापाई हो गई !

"कैम्प पर फायर करने का आदेश "

उस एंग्लो-इंडियन ने बाहर आकर संतरियों तथा उनके कम्पनी कमांडरों को कैम्प पर फायर करने का आदेश दिया परन्तु किसी सिपाही ने फायरिंग नहीं की !

" गोरखा कम्पनी द्वारा सज़ा दिलवाना "

उसके बाद शाम को दिल्ली से एक ९ वी कंपनी मंगाई गई ! हम सोए हुए थे, करीब एक बजे रात को गोरखा सैनिक कैम्प में घुसे ! सभी की राइफलों में संगीनें लगीं थीं ! उनहोंने हमें जगाया और कंपनी कमांडर ने कहा कि आप लोगों को कैम्प कमांडेंट ने आधा घंटा डबल करने का हुक्म दिया है ! हम सबने आपस में विचार विमर्श किया कि आधा घंटा डबल करने में हमारा कुछ नहीं जाता है परन्तु वह तो धोखा कर रहे थे !

इसके पश्चात वे हमें खाली पिंजरे (CAGE) में ले गए और वहाँ दोनों हाथ खड़े करवा कर डबल करवाने लगे ! सुबह करीब २ बजे से सुबह ४ बजे तक वे लगातार डबल करवाते रहे ! यदि इसी बीच कोई थक जाता, गोरखे सैनिक उसे संगीन मारते थे ! (संगीन राइफल के आगे लगे हुए छुरे को कहते हैं )

इस एक रात में ही करीब ६०-७० कैदी सैनिकों को संगीनें मारी गई और जख्मी किया गया ! मैं भी इसी घटना में घायल हुआ था !

उसके बाद जो लोग शेष बचे थे उन्हें कैम्प में वापस ले जाया गया ! जब सुबह हुई तो एक डाक्टर, जो कि शायद बंगाली था, हमारे उपचार के लिए उसे कैम्प लाया गया ! हमने उसे बुरा-भला कहा और बोले, "कि रात में बैनेट (संगीनों से) मारते हो और सुबह इलाज़ करवाते हो !"

इस पर वह किसी का भी उपचार किए बिना ही लौट गया !

उसके बाद एम्बुलेंस की गाडियाँ आईं और हमें गाड़ियों में लाद कर, संगीनों के पहरे के बीच दिल्ली अस्पताल पहुंचाया गया ! दस दिन में या बीस दिन में, जैसे-जैसे, जो-जो ठीक होता गया उसे वापस बहादुर गढ़ जेल में ले आया गया !


"ईसा मसीह की तरह यातनाएं "

जिनको अंग्रेज कैम्प में नेता या विशेष क्रिमिनल मानते थे, उनके लिए सूबेदार मेजर, जो कि एक मुसलमान था, उसने एक प्रकार की सज़ा निकाली ! पहले दिन चार आदमियों की एक टोली, केम्प से बाहर बुलाई, वहाँ पर प्रत्येक कैदी के लिए एक-एक नाई बिठा रखा था ! नाईयों को आदेश था कि कैदियों के सर, दाढी,-मूंछ, तथा आँख की भंवें तक के बाल उस्तरे से बिलकुल साफ़ कर दिए जाएं तथा हाथ व पैर के सभी नाखून भी काट दिए जाएं !

इसके बाद प्रत्येक कैदी के हाथ एवं पैर अलग-अलग रस्सियों से बाँध कर (वहाँ एक चांदमारी का सा बट लगा हआ था), वहाँ ले जा कर (हर कैदी को चार रस्सियों से बांधा गया था), उलटा टांग कर सूबेदार मेजर साहब सीटी बजाते थे (छाती आसमान और पीठ धरती की ओर), सीटी बजाने पर सिपाही रस्सी खींच लेते थे !

करीब दो मिनट में ही जब कैदियों की आँखें बंद हो जाती थीं तो सूबेदार मेजर साहब फिर सीटी मारते और सिपाही रस्स्सियाँ ढीली कर देते थे ! इस प्रकार कैदियों की पीठ ज़मीन पर लग जाती थी ! जब कैदी आँखें खोलते तो सूबेदार मेजर साहब पूछते कि क्या चाहिए ?

हमारा उत्तर होता- आज़ादी !

हमारा नारा होता था आज़ादी ! तो वे कहते थे कि, "आज़ादी दिलाता हूँ" फिर वे सीटी बजाते और सिपाही रस्सियाँ तान देते थे !

इस प्रकार की सज़ा तीन बार देने पर ही सूबेदार मेजर साहब का भतीजा, जो इस सज़ा में हमारे साथ ही शामिल था, इस सज़ा की भयंकर पीडा को न सह पाने के कारण काल-कवलित हो गया !

शायद उसी के त्याग एवं तपस्या से यह यातना बंद हो गई ! उसे वे ले गए और हमें दूसरा कोर्स कराया गया जो इस प्रकार था :-

" दूसरी सज़ा "

वे प्रत्येक कैदी के दोनों हाथों पर मिटटी के भरे हुए दो टिन रख कर और उसकी पीठ पर एक बड़ा रुकसेट (मिटटी का भरा हुआ) पीठ पर रखवा कर डबल करवाते थे ! फिर सूबेदार साहब पूछते थे कि- क्या चाहिए ?
हमारा साफ़ जवाब होता- आज़ादी !

हमारे इस स्पष्ट उत्तर से वे चिढ जाते और कहते कि अभी आज़ादी दिलवाता हूँ !

फिर इसी तरह दो-तीन बार डबलिंग करवाते !

इसके बाद हम लोगों को एक खाली कैम्प में ले जाया गया जहां कि आई पी टेंट लगा हुआ था ! फिर हमारे हाथ एवं पाँव इकट्ठे बाँध कर,(कमर को ज़मीन पर टिका रहने दिया गया) रस्सी को टेंट के ऊपर पोल से आसमान की तरफ बाँध दिया गया ! टेंट के दोनों ओर एक-एक सन्तरी लगा दिया गया ! रात भर टंगे रहे तो हमारी पीठ का चमडा नीचे ज़मीन में दीमकों द्वारा काट लिया गया था !

जब सुबह हुई तो हम लोगों को खोला गया ! करीब एक घंटे तक हम टेंट के भीतर फुटबाल की तरह लुढ़कते रहे, तब कहीं जा कर बड़ी मुश्किल से खड़े हो पाए !

फिर भी सूबेदार मेजर साहब का वही प्रश्न होता कि - क्या चाहिए ?

हमारा जवाब और नारा भी वही होता - आजादी !

इसके बाद हमें हमारे कैम्पों में वापस भेजा गया ! जब हम अपने पिंजरों (CAGES) में वापस पहुंचे तो सभी कैदियों ने हमें घेर लिया ! फिर हमनें पूरी दास्तान अन्य कैदियों को बताई ! फलस्वरूप सभी कैदी घबरा गए !
इससे हमने उन सबको यही राय दी कि यदि वे इन यातनाओं को नहीं सह सकते तो अंग्रेजों से माफ़ी मांग कर कैम्पों से चले जाएं !

बहुत से लोग चले भी गए !

इस प्रकार दो-तीन दिनों में ही जेलों से कई कैदी माफ़ी मांग कर चले गए ! उसके बाद फिर हमारे बयान लेने प्रारम्भ हुए !

कैदियों को तीन श्रेणियों में बांटा गया था जिसका विवरण पूर्व में दिया जा चुका है !



"सुभाष बोस के बारे में सच्चाई "


अनेक भारतीयों, नेहरू तथा गांधी जी के साथ सुभाष चन्द्र बोस के मतभेदों के कारण उन्हें मातृ-भूमि से दूर कहीं ओझल होने के लिए मजबूर होना पडा, क्योंकि अंग्रेज भी उनसे भयभीत थे और किसी भी कीमत पर उनकी ह्त्या करा देना चाहते थे ! अत: १८ अगस्त १९४५ को सुभाष, कर्नल हबीबुर्रहमान और जापानी सेना की सहमति से वायुयान दुर्घटना का नाटक रचा गया (ताकि अँगरेज़, सुभाष बोस की भारतीय सेना में लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए यथा शीग्र भारत को स्वतंत्र कर सकें)! सन १९४६ में नौसेना और वायु सेना के विद्रोह ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था परन्तु समस्या यह थी की सत्ता को किसे सौंपा जाए ! मैदान में कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दो पार्टियाँ थीं ! दोनों दलों के नेता प्रधानमन्त्री बनने के इच्छुक थे ! धार्मिक आधार पर जनता भी बंटी होने के कारण समझौते की कोई सम्भावना नही थी ! हिन्दू कांग्रेस के पक्ष में थे और मुसलमान, जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग के पक्षधर थे !

एक ओर तो इस राजनीतिक अशांति का हल ढूँढने का प्रयास किया जा रहा था परन्तु दूसरी ओर नौसेना और वायु सेना के सिपाहियों द्वारा भारत के विभिन्न भागों में बगावत ने अंग्रेजों को भयभीत कर दिया था और वे इस समस्या को तुरंत हल करके वापस इंग्लैंड भाग जाना चाहते थे !

अत: इन परिस्थितियों में अंग्रेजों ने, भारतीयों को सत्ता सौंपने का तुंरत निर्णय लिया क्योंकि उन्हें डर था की कहीं सुभाष, सेना को एक जुट न कर लें ! यहाँ अंग्रेज उलझन में थे क्योंकि मुसलमान अपने लिए एक अलग मुस्लिम देश चाहते थे परन्तु भारतीयों की बहुसंख्य जनता मुसलमानों से अतिरिक्त थी और यह अतिरिक्त (गैर-मुस्लिम) जनता भारत देश के बंटवारे के खिलाफ थी !

इस बंटवारे को टालने के लिए दोनों पक्षों में से कोई भी अविभाजित भारत का प्रधान-मंत्री पद, किसी दूसरे के लिए छोड़ने को राज़ी नहीं था ! जिन्ना और नेहरू, दोनों ही प्रधान-मंत्री बनना चाहते थे ! इस विचित्र परिस्थितियों में अंग्रेजों ने इस देश को दो राष्ट्रों में बांटने का ऐतिहासिक निर्णय ले लिया और प्रधान-मंत्री के दोनों इच्छुकों को सत्ता सौंप दी ! एक घर के दो हिस्से कर दिए गए और सत्ता के भागीदार, हिन्दू और मुसलमान दोनों बन गए ! इस प्रकार भारत के बंटवारे के कारण, धार्मिक आधार पर पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया ! यह भारतीय मुसलमानों का एक अलग देश, उनका अपना देश बन गया !इस बंटवारे के फलस्वरूप यहाँ भारत में मुसलमानों को नागरिकता का दावा करने का कोई हक (औचित्य) न बचा था परन्तु भारत ने धर्म-निरपेक्षता का सिद्धांत अपनाया और मुसलमानों को समान अधिकार दिए गए जो वर्तमान परिस्थितियों में गलत सिद्ध हो रहा है ! ये अपनी जनसंख्या इतनी कर लेंगे कि एक और विभाजन(भारत के विभाजन) की मांग कर सकें ! जिन्ना और नेहरू दोनों की प्रधान-मंत्री बनने की इच्छा इस प्रकार पूरी हो गई !

यदि भारत में सुभाष का शासन होता तो भारत का विभाजन न होता ! वे सीमांयें जो उत्तर-पश्चिम में ईरान और अफगानिस्तान और पूर्व में बर्मा को छूती हैं, तक का प्रदेश, संयुक्त भारत या महान भारत जाना जाता ! यह सुभाष का ही करिश्मा था की भारत, उनके ओझल हो जाने के मात्र दो वर्षों की छोटी सी अवधि में ही आजाद हो गया यद्यपि दो भागों में बटकर ! उनके ओझल हो जाने के उद्देश्य, भारत की आज़ादी को थोड़े ही समय में प्राप्त हो जाने के रूप में प्राप्त हुआ, परन्तु नेहरू-जिन्ना जैसे अवसरवादी प्रधानमन्त्री बनकर सत्ता के भागीदार बन गए ! अफ़सोस ! यदि आइ ऍन ए, सन १९४५ में जीत जाती और इम्फाल से आगे गंगा और यमुना के मैदानों तक पहुच जाती तो भारत का राजनैतिक परिद्रश्य कुछ और ही होता !

आज़ादी के संघर्ष में नेता जी का कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं ? यह कहना है भारत सरकार के गृह मंत्रालय का ! श्री एस के मल्होत्रा, जो कि गृह मंत्रालय में सचिव थे, के द्वारा श्री भट्टाचार्य को बताई गई थी ! कितनी शर्म की बात है कि, केवल उनके (सुभाष) राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को ही महिमा मंडित किया जा रहा है ! यदि आप इतिहास की पुस्तकों को पढें तो आप पाएंगे कि सुभाष चन्द्र बोस के बारे में कोई अध्याय नहीं है, जबकि मात्र वे ही ऐसे ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, केवल वही ऐसे राजनीतिग्य हैं जिन्होंने सेना की यूनिफार्म पहनी और इंडियन नेशनल आर्मी (आई ऍन ए) के सुप्रीम कमांडर, बिना किसी नियमित सैनिक ट्रेनिंग के ४७ वर्ष की आयु में बन कर सफलता पूर्वक युद्ध का संचालन किया !

गाँधी जी ने भी यूनिफार्म पहनी थी लेकिन अंतर यह था कि सुभाष ने भारत को आजाद कराने के लिए यूनिफार्म (वर्दी) पहनी और गांधी ने ब्रिटिश सेना में भर्ती होने और दक्षिण अफ्रीका में बोअर्स के विद्रोह (आन्दोलन) को कुचलने के लिए वर्दी धारण की !

सुभाष तथाकथित वायु यान दुर्घटना में नहीं मारे गए थे ! यह तथ्य तो मुखर्जी आयोग ने भी अपनी जांच में ताइपेह (ताइवान) जा कर सिद्ध किया कि १८-०८-१९४५ को ऐसी कोई विमान दुर्घटना ही नहीं हुई तो किसी मृत्यु का तो प्रश्न ही नहीं उठता ! परन्तु एक ज्वलंत प्रश्न भारतीयों के समक्ष मुंह-बाए खडा होता है कि यदि सुभाष की मृत्यु हवाई दुर्घटना में नहीं हुई तो वे कहाँ चले गए, कहाँ अलोप हो गए ?

अब अनेक स्रोतों से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि सुभाष मंचूरिया की ओर चले गए थे जो कि २५ अगस्त १९४५ तक रूस के कब्जे में था !

कई रिपोर्टों से यह बात सिद्ध होती है कि वे रूस में थे, स्तालिन सुभाष के अच्छे मित्र थे ! उनहोंने सुभाष को रूस में शरण दी ! बहुत से स्रोतों से यह जानकारी मिलती है कि सुभाष, खिल्सई-मलंग के नाम से साइबेरिया (रस) की एक जेल-यार्कतुस्क जेल में थे, वे वहाँ ४६५ नम्बर सेल में थे !

सुभाष, इसके बाद भारत के कई ख़ास व्यक्तियों से मिले ! ऐसा कहा जाता है वह १९४८ को मास्को में डा. राधाकृष्णन से मिले और उनसे प्रार्थना की कि उनकी भारत में वापसी के लिए सुरक्षित व्यवस्था की जाए ! राधाकृष्णन (जो कि बाद में भारत के राष्ट्रपति भी बने) ने ऊँचे पदों पर आसीन व्यक्तियों से सम्पर्क भी किया परन्तु उनकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था !

सुभाष, श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित (स्व.प्रधान मंत्री की बहन) से भी मास्को में मिले थे ! यह बात खुल गई थी !
सुभाष, एक दूर की सोचने वाले और तुंरत निर्णय लेने की क्षमता वाले व्यक्ति थे ! चूंकि वे तुरंत बुद्धि वाले थे अत: किसी प्रकार, किसी युक्ति का प्रयोग कर वे स्वयं अपने प्रयासों से जेल से मुक्त होने में सफल रहे ! वे भारत लौटे और अमरावती के श्री पाध्ये के मुताबिक वे १९४७ से लेकर १९५९ तक तीन बार भारत आए ! उन्हें भारत आने की अनुमति किस प्रकार मिली, यह स्वयं में एक भेद है परन्तु मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि सुभाष का भारत-प्रेम उन्हें भारत भूमि पर ले आया क्योंकि कागजों में तो उनकी मृत्यु हो ही चुकी थी, अब यदि वे भारत भूमि से दूर, एक अनजान देश में, अनजान लोगों के बीच यदि मृत्यु की बाट जोहते हैं तो उसका क्या फायदा ? उनका भारत की आज़ादी का मनोरथ तो पूरा हो चुका था, भारत देश अब आजाद था !

अत: सुभाष ने भारत लौटने और भारत भूमि पर ही अपनी अंतिम साँसे लेने का मन बनाया ! कम से कम यहाँ उनके अपने तो होंगे उन्हें कन्धा देने के लिए ! अपनी, जेल से मुक्ति के समय सुभाष की आयु ६० वर्ष से अधिक हो चुकी थी अत: उनहोंने भारत की सरकार के साथ (नेहरू से) अपनी पहचान गुप्त रखने का समझौता कर लिया था ! उनहोंने सत्ताधारियों को विश्वास दिला दिया था कि वे ही नहीं, बल्कि उनके सभी आई ऍन ए के भूतपूर्व सभी सैनिक तथा अफसर भी उनका भेद गुप्त रखेंगे !

परन्तु यह आसान न था ! नेहरू को डर था कि यदि सुभाष प्रकट हो जाते हैं तो कांग्रेस का भारत पर शासन करना लगभग असम्भव ही हो जाएगा !

कौन कहता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को नेता जी के १९४५ के बाद जीवित होने की जानकारी नहीं थी? नेहरू इससे अनभिज्ञ न थे, परन्तु उनकी चुप्पी, उनके निजी स्वार्थ को उजागर करती है! 


जवाहरलाल नेहरू द्वारा ब्रिटिश प्रधान मंत्री लार्ड एटली को लिखा गया पत्र जो नेताजी सुभाष बोस के रूस में होने की पुष्टि तथा सत्यता को प्रमाणित करता है! 

नेहरू, सुभाष के बलिदान एवं देश-प्रेम से तो परिचित थे ही परन्तु उनका स्वार्थ, उनका अपना डर, उन्हें सुभाष का भेद प्रकट करने से रोकता था ! वे चाहते तो थे कि सुभाष, भारत लौट आएं अत: उनहोंने एक गहरी चाल चली और सुभाष से यह शपथ ली कि वे (सुभाष) कभी अपना भेद न खोलेंगे ! सुभाष तो भारत भूमि पर आने के लिए बेताब थे, उनहोंने नेहरू की इस शर्त को मान लिया था और इस तरह सुभाष को, नेहरू ने ब्लैकमेल कर दिया था ! सुभाष को भारत लौटने और भारत भूमि में बसने के लिए यह कुर्बानी भी देनी पड़ी !

और कांग्रेस का शासन, नेहरू द्वारा भारत में, भविष्य में भी सुनिश्चित कर दिया गया था ! अब नेहरू को, सुभाष से कोई खतरा न था !

भारत में सुभाष ने अपने सभी पूर्व परिचित आई ऍन ए के सदस्यों, अफसरों तथा अन्य परिचित सैनिकों व गैर सैनिकों को भी गोपनीयता की शपथ दिलाकर समझौते का पालन कराया ! बहुत ही थोड़े से लोगों ने, गोपनीयता की शपथ न लेकर इस भेद को देश प्रेम की खातिर, सुभाष का खुलासा कर दिया जिनमें प्रमुख थे मेजर सत्य गुप्ता और श्री उत्तम चंद मल्होत्रा, जिन्होंने उनकी पहचान स्वामी शारदानंद जी के रूप में प्रकट की जो १९५९-६० में जिला कूच बिहार (पश्चिम बंगाल) के फलाकाटा में शौलमारी आश्रम स्थापित कर के रह रहे थे !

सर्व प्रथम उनके (सुभाष) के बारे में खबर दिल्ली के दैनिक वीर-अर्जुन में सन् १९६० में छापी ! आई ऍन ए के मेजर सत्य गुप्ता ने उनसे, उनके आश्रम में मिलने के बाद कलकत्ता में, संवाददाता सम्मलेन में, फरवरी १९६२ में यह रहस्य प्रकट किया ! श्री उत्तम चंद मल्होत्रा जो रेडियो और फोटोग्राफर की दुकान काबुल में चला रहे थे, जिन्होंने काबुल (अफगानिस्तान) में सुभाष को ४७ दिनों तक अपने कमरे में रखा था और उनको जर्मनी जाने में सहायता प्रदान की थी, भी स्वामी शारदानंद जी से मिले और उनहोंने भी यह सच्चाई प्रकट कर दी कि स्वामी शारदानंद जी ही वास्तव में सुभाष चन्द्र बोस हैं !

मल्होत्रा जी ने यह रहस्य जुलाई १९६२ में प्रकट किया था !

श्री एस एस पाधेय पूर्व प्रधानाचार्य अमरावती, ने भी अपना अनुभव निम्नलिखित प्रकार बताया ! पूर्व प्रधानाचार्य दावा करते हैं कि नेता जी १९७७ तक जीवित रहे !

पाधेय जी अपनी उम्र के सत्तरवें दशक में यह दावा करते हैं कि वे १९६४ से १९७१ तक नेता जी के निकट संपर्क में रहे और यहाँ तक कि उन्हें (सुभाष) मेलघाट के जंगलों में चार महीने तक छुपा कर भी रखा जबकि भारतीय जासूस उनका पीछा कर रहे थे ! अनेक कागजात और फोटोग्राफ उनके पास हैं जो स्पष्ट रूप से विमान दुर्घटना में मृत्यु के कहानी को साफ़ तौर पर झूठा साबित करते हैं !

सचिव पी के सेनगुप्ता के नेतृत्व में मुखर्जी कमीशन तीन दिन तक यहाँ रहा ! पाधेय की बात सुनने के लिए और उनके दावों की सत्यता को परखने के लिए ! कमीशन कहता है कि पाधेय के कथन की विश्वसनीयता पर टिप्पणी करने के लिए कुछ और समय की आवश्यकता है (जो समय कभी नहीं आया) ! सोमवार को (सेनगुप्ता ने कहा) जांचकर्त्ता दल नेता जी की राख का डी ऍन ए विश्लेषण कराने के लिए अत्यंत आधुनिक ज्ञान को प्रयोग में लाएगा !" हमने नेता जी के तीन वंशजों के रक्त के नमूने भी ले लिए हैं और हस्तलेख विशेषज्ञों की नियुक्ति भी सत्य को स्थापित करने के लिए की जाएगी ! बाद में डी ऍन ए टेस्ट नहीं किया जा सका क्योंकि राख बहुत ऊँचे तापक्रम पर जली थी और डी ऍन ए का कोई भी नमूना परीक्षण के लिए उस राख में से प्राप्त नहीं किया जा सका था !
परन्तु पाधेय जी एकदम विश्वस्त हैं कि जो व्यक्ति उनहोंने देखा था वह नेताजी ही थे ! "मैंने उनका शौलमारी आश्रम, पश्चिम बंगाल में देखा था जिसमें वे निरंतर १९७१ तक शारदानंद बाबा के रूप में, अपने सम्मोहित वृत्त में ही रहे ! उनकी बाँई भोंह पर कटे का निशान, थोडा सा भेंगापन, और ५ फीट ९ इंच का कद तथा वह हस्त लेख जो उन पत्रों में था जो कि उनहोंने मुझे लिखे थे, सिद्ध करते थे कि वह वही सुभाष चन्द्र बोस थे ! पाधेय जी, जो कि स्थानीय वी एम वी कालेज से अवकाश प्राप्त थे, कहते हैं कि मराठी साहित्यकार पी के अत्री के १९६२ के लेख से प्रभावित हो कर ही, जो कि उनहोंने शौलमारी आश्रम को स्वयं देखने के बाद लिखा था, पाधेय जी ने सन् १९६४ में बाबा को पत्र लिखा कि उनकी इच्छा उनके दर्शन करने की है !

सन् १९६५ में नागपुर के एक अखबार में खबर छपी कि आश्रम जासूसों का अड्डा बना हुआ था ! वह लिखते हैं कि आश्रम की ओर से उन्हें कहा गया था कि उस अखबार की १० प्रतियाँ लेकर आयें !

"वह बदलाव का क्षण था ! मैं वहाँ गया ! प्रारम्भ में मुझे भी संदेह की द्रष्टी से देखा गया, कारण यह था कि आश्रम जासूसी निगरानी में था क्योंकि संभावना ऐसी थी कि बाबा, वास्तव में नेता जी ही थे, परन्तु धीरे-धीरे मैंने बाबा का विश्वास जीत लिया !"

पाधेय जी उन तस्वीरों को दिखलाते हुए कहते हैं कि (जो कि उनहोंने बाबा जी की ली थीं), "ऐसी तस्वीरें किसी और के पास नहीं हैं, क्योंकि बाबा अपनी तस्वीर किसी को लेने ही नहीं देते थे !" जासूसों द्वारा पीछा किए जाने के सम्बन्ध में पाधेय कहते हैं कि नेहरू इस बात से चिंतित थे कि देश, नेता जी के पीछे खडा हो जाएगा यदि वह प्रकट हो जाते हैं तो ?

"नेता जी ने एक बार टिप्पणी की थी कि जवाहर लाल नेहरू में महानतम महानता और निम्न से निम्नतर स्तर की नीचता भी थी !"

खोसला कमीशन ने उनके दावों को क्यों नहीं परखा ? "कमीशन मुझे कलकत्ता पहुँचने को कहता था, मैंने मना कर दिया था ! मैंने कमीशन को अमरावती आने के लिए आमंत्रित किया था, मैंने आग्रह किया था कि मुझ से कैमरे के सामने प्रश्न किए जाएं जिसका कमीशन ने कोई जवाब नहीं दिया था ! पाधेय जी का यह भी कहना था कि उनसे कभी कोई सवाल पूछे ही नहीं गए अपितु सदैव अवहेलना ही की गई !

"सन् १९७६ में मैं पुन: नेता जी से मिलन देहरा दून गया ! इस बार उनका (सुभाष जी का) कोई भी परिचित या मित्र उनकी पहचान नहीं छुपा रहा था !" अत: मैंने उनसे पूछा कि वह स्वयं को प्रकट क्यों नहीं कर देते तो उनका उत्तर था कि "मैं अब वह लड़कपन वाला सुभाष नहीं रहा !" ऐसा पाधेय जी ने बताया !

अब कोई संदेह नहीं रहा था ! हमने (उत्तराखंड मिशन नेताजी-देहरा दून) द्वारा सुभाष जी के जीवन से सम्बन्धित सभी गायब (MISSING) कडियाँ जोड़ दी गई हैं ! सभी साक्ष्यों को सूक्ष्मता से परखा गया और सत्यता की पूर्ण जांच करके ही हमने अपने इस दावे को, इस सच्चाई को जनता के सम्मुख लाने का निश्चय किया है !

यदि अब भी पाठकों के मन में कोई संदेह बचा हो तो उनके बारे में मैं स्वयं अपना सच्चा अनुभव बताता हूँ कि वह अपनी अँगुलियों की छाप कैसे छुपाते थे, उनहोंने कभी कोई फोटो नहीं लेने दिया ! सरकार उनके भेद से भली-भाँति परिचित थी ! फलाकाटा आश्रम, जिसे शौलमारी आश्रम भी कहा जाता था, में लगभग ६-७ वर्ष बिताने के बाद, उन्होंने भारत के विभिन्न भागों का दौरा भी किया और १९७१-७२ तक वे भ्रमण करते रहे ! १९७२-७३ में वे देहरा दून आए और यहाँ की सुन्दरता और शांत वातावरण ने इनका मन मोह लिया और फिर वे यहीं के हो कर रह गए ! अपनी मृत्यु तक वे स्थायी रूप से देहरा दून में ही निवास करते रहे ! पाठक उनके मृत्यु-उपरांत, उनके दाह-संस्कार में सरकार की भूमिका भी देख सकते हैं ! भारत सरकार ने उन्हें मृत्युपरांत पूर्ण सम्मान तो दिया लेकिन पूर्ण और सच्ची मान्यता नहीं जिसके वे पूर्ण रूप से अधिकारी थे !

उनके दिवंगत शरीर को भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे में लपेट कर शव को गंगा घाट पर ले जाना और पूर्ण राजकीय सैनिक सम्मान के साथ २१ बंदूकों की सलामी का दिया जाना, अपने आप में ही हमारे दावे की सत्यता की पुष्टि करता है ! उनकी मृत्यु पश्चात तत्कालीन प्रदेश, यू पी के गवर्नर का वायरलेस सन्देश का आना और पुलिस का अविलम्ब प्रबंध करने का आदेश तथा शव का वी वी आई पी की भांति विशिष्ट सम्मान प्रदान करना, क्या कोई संदेह की गुंजाईश छोड़ता है ?

यही सच्ची कहानी, नेता जी की मृत्यु का रहस्य उजागर करने के लिए मुझ प्रत्यक्षदर्शी द्वारा कुछ महत्वपूर्ण साक्ष्य देते हुए एवं तथ्यों का विश्लेषण करते हुए लिखी गई है ! बाकी तो पाठकों के अपने पूर्ण संतोष पर निर्भर करता है परन्तु इस कहानी का प्रत्येक शब्द अपनी सच्चाई का स्वयं बयान करता है !



"मेरी सच्ची कहानी "

मेरा नाम अजमेर सिंह रंधावा है ! धार्मिक आधार पर मैं एक सिख हूँ ! मैं देहरा दून का रहने वाला हूँ, जो कि इस समय उत्तराखंड की राजधानी है ! पहले यह शिवालिक पर्वतों में स्थित, दून घाटी के रूप में जानी जाने वाली छोटी, और सुकून देने वाली जगह थी ! मैंने यहीं शिक्षा प्राप्त की और जब मैं बी एस सी का छात्र था तभी मैंने पार्ट टाइम टैक्सी बिजिनेस शुरू कर दिया था क्योंकि मैं बहुत गरीब था और बाद में भी मुझे बीच में ही अपनी शिक्षा को तिलांजलि देनी पडी थी जिससे अपने परिवार का सुचारू रूप से भरण-पोषण कर सकूं !

एक बार मैं मसूरी की उंचाईयों से देहरा दून के मैदानी इलाकों की ओर, राजपुर के रास्ते से होकर आ रहा था ! यह अप्रैल १९७७ की बात है कि मेरा सामना एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना से हुआ जिसने मेरी जीवन धारा को ही बदल दिया !

मैं राजपुर में कुछ यात्रियों को उतारने के लिए रुका, अचानक मैंने उस क्षेत्र के पुलिस उपनिरीक्षक को देखा जो कि दो सिपाहियों के साथ किसी वाहन की प्रतीक्षा में था ! चूंकि वह मेरा गहरा मित्र था, उसका नाम सुरेन्द्र शर्मा था ! वह वास्तव में फुर्तीला, सुन्दर नौजवान पुलिस अफसर था और उस क्षेत्र का सेकिंड आफिसर इन-चार्ज था ! श्री इंदरपाल सिंह जी उस राजपुर क्षेत्र के पुलिस स्टेशन के इन-चार्ज थे ! मैंने सुरेन्द्र शर्मा को आवाज़ दी और पूछा कि कैसे खड़े हो तो उन्होंने वहीँ से मुझ से पूछा कि किधर जा रहे हो ? मैं आश्चर्य चकित हो उठा और कहा कि यार देख तो रहे हो कि मैं देहरा दून जा रहा हूँ, और पूछा कि क्या बात है जो इतना परेशान दिखाई दे रहे हो? तब उन्होंने मुझसे पूछा कि यार थोडी दूर तक जाना है और कि मेरे पास तो सवारियां बैठी हैं ! मैंने प्रत्युत्तर में कहा कि तुम बैठो मित्र, आगे की सीट पर आ जाओ तो उन्होंने कहा कि वे तीन जने हैं ! कोई बात नहीं सभी आ जाओ और मैंने अपनी एमबसेडर कार की अगली सीट पर बैठा लिया और चल दिया ! कार के चलते ही मैंने उनकी परेशानी का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि अभी-अभी उन्हें वायरलेस से यू पी के तत्कालीन गवर्नर साहब का एक संदेश प्राप्त हुआ है कि १९४ राजपुर रोड पर एक वी आई पी की मृत्यु हो गई है और कि उनसे कहा गया है कि वे वहाँ पुलिस एस्कार्ट (सुरक्षा दस्ता) लगा दें ! साथ ही उन्होंने आश्चर्य प्रकट किया कि उनके क्षेत्र में एक वी आई पी की मृत्यु हो गई, उन्हें तो पता भी नहीं और गवर्नर साहब को लखनऊ में सूचना मिल गई ! आखिर वह ऐसा महत्वपूर्ण वी आई पी है कौन ?

मैंने भी हामी भर दी और कहा कि चलो अभी पता चल जाएगा ! यह कह कर मैं चल दिया, मुश्किल से पांच मिनट में ही हम उस कोठी १९४ राजपुर रोड, पर जा पहुंचे ! यह कोठी या बँगला महाराजा पटियाला का था ! मैंने कार को सड़क के किनारे खडा किया और खुद भी उत्सुकता के कारण कोठी के भीतर चला गया !

मैं उस कोठी के भीतर प्रवेश कर गया ! उसमें बांयीं ओर एक गेस्ट हाउस बना था तथा दायीं ओर खुला लान था ! बहुत सुन्दर द्रश्य था, सुबह की सुहावनी धूप और भी मनमोहक छटा बिखेर रही थी ! करीब सत्तर या अस्सी कदम चलने पर एक कुटिया थी (एक अस्थायी, कामचलाऊ) जिसके पीछे की ओर से प्रवेश द्वार था ! हम वहीं थे कि पुलिस आफिसर ने मरने वाले व्यक्ति की पहचान पूछी !

तो जवाब सुन कर तो मेरे पैरों के नीचे से जैसे ज़मीन ही निकल गई हो, मैं तेज़ी से उस झोंपडी की ओर भागा जो बमुश्किल १० कदम दूर थी ! उसका दरवाज़ा पीछे की ओर था ! मैं भागकर भीतर गया तो जो देखा उससे तो मेरा शरीर ही स्पन्दन-हीन हो गया था ! आज भी वह द्रश्य मेरी आँखों के सामने है और आज भी उस द्रश्य की कल्पना मुझे अब भी स्पंदन हीन कर देती है !

वहाँ पड़े मृत शरीर को देखते ही मैं स्तब्ध रह गया मानो कि मेरे शरीर में रक्त की कोई बूँद ही न बची हो ! वहाँ बर्फ से ढंका साधू का शरीर था, ताकि कुछ दिनों तक उसे सुरक्षित रखा जा सके ! अरे मैं तो उन्हें जानता था, मैं तो उन्हें अपनी टैक्सी कार में विभिन्न स्थानों पर ले जाता रहा हूँ ! मैंने उनके बारे में जानने की कभी कोशिश ही न की थी ! सुभाष जी तो बहुत ही महान व्यक्ति थे ! भारत के किसी भी धर्म का व्यक्ति हो, सुभाष जी के लिए आदर भाव रखता है ! वे भारतीयों के प्रेरणा स्त्रोत थे ! उनके द्वारा देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए निस्वार्थ संघर्ष के प्रति तो प्रत्येक भारतवासी अपना सर उनके आगे आदर भाव से झुकाता है ! उन्होंने जापान की सहायता से अंग्रेजी सेना के विरुद्ध युद्ध लड़ा, केवल भारत को आजाद कराने के लिए और अब वह मेरे सामने मृत पडा है- एक दम शांत ! उस समय वहाँ पर न तो कोई सरकारी अफसर और न ही कोई अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति उपस्थित था जो उसकी महिमा का बखान कर सके, उसकी पहचान बता सके ! केवल २-३ उनके सहयोगी ही वहाँ उपस्थित थे !

उस समय, उस महान संत (सुभाष चन्द्र बोस) के जीवित रहते, उनके साथ बिताया प्रत्येक क्षण मेरी आँखों के सामने से गुजरने लगा ! मुझे याद आया कि हर बार किस चालाकी से उनहोंने अपनी पहचान को छुपाया ! मै प्रयास करूंगा, विस्तारपूर्वक यह बताने का कि वे ऐसा कैसे करते थे ! वे सदैव मौन रहते थे !जब वह यात्रा कर रहे होते थे तो न तो वह मुझसे कोई बात करते थे और न ही अपने अन्य सहयोगियों से !

केवल एक बार ही मैंने स्वामी जी से बात की थी ! वह भी उस समय जब एक बार मैं उन्हें लेने पहुंचा तो सन्देश मिला कि, "आज आप बैठें, भीतर आ जाएँ, बाबा जी आज आप से बात करेंगे !" यह एक आश्चर्यजनक बात थी और मैं इसके लिए तैयार भी न था ! मन में सोचा कि न जाने ऐसी क्या बात है जो मुझे भीतर बुलाया है परन्तु आदेश को मानते हुए मैं कमरे के भीतर चला गया ! चूंकि मैं स्वामीजी के निकटवर्ती लोगों में से एक समझा जाता था, वे मुझसे परिचित भी थे, मेरा नाम भी जानते थे अत: कोई आर्श्चय की बात तो न थी ! फिर भी भीतर देखा तो कमरा पूर्णत: खाली था, सिर्फ एक कुर्सी पड़ी थी ! मैं शिष्टाचार का ध्यान रखते हुए खडा रहा, कुछ मिनटों में ही स्वामी जी ने कमरे के भीतर प्रवेश किया और कुर्सी पर बैठ गए ! मैंने अपना सर झुकाया और उनको सम्मान देते हुए उनके चरणों में झुक गया ! बाबाजी ने मुझे, मेरे सर पर हाथ रखकर आर्शीवाद दिया ! इस आर्शीवाद में न जाने ऐसा क्या था जो उस वक़्त की सिहरन अभी भी मेरे शरीर में महसूस होती है !

मैं अब यह महसूस करता हूँ कि यह एक महान क्षण था, यह वो व्यक्ति था जिससे सारे भारतवासी यह आशा करते थे कि एक न एक दिन अवश्य प्रकट होगा और वही व्यक्ति अपना हाथ मेरे सर पर रखकर अपना आशीर्वाद मुझे दे रहा था ! अवश्य ही मैं परम भाग्यशाली रहा होउंगा या मेरे पूर्व-जन्म के कुछ अच्छे किए गए कार्यों का ही यह प्रतिफल था !

फिर उन्होंने मुझसे कुछ प्रश्न मेरे, मेरी शिक्षा और मेरे माता-पिता तथा मेरे परिवार के अन्य सदस्यों के बारे में पूछे जिनका मैंने सही उत्तर दिया, मैंने तब भी महसूस किया था कि वे मुझसे काफी प्रसन्न थे, उनके चेहरे के हाव-भाव बता रहे थे ! उन्होंने कुछ वाक्य अंग्रेजी में भी बोले थे जिससे मैं यह तो समझ गया था कि उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी और कि वे काफी शिक्षित हैं- यह उनके अंग्रेजी के उच्चारण से पता चलता था !


उन्होंने (सुभाष बोस जी ने) मेरे साथ लगभग १० मिनट बात की होगी, फिर वे कुर्सी से उठ खड़े हुए जो मुझे संकेत देने के लिए काफी था कि अब मुझे आज्ञा लेनी चाहिए, मैंने झुक कर दुबारा चरण स्पर्श किए और तब वे भीतर चले गए और मैं भी कमरे से बाहर आ गया !

उनका व्यक्तित्व, मेरी स्म्रतियों में अभी भी ताजा है, उनका आकर्षक शरीर और अच्छा स्वास्थ्य, रंग सांवला, सफ़ेद दाढी और सिर के दोनों और झूलते बाल जो लगभग उनके कन्धों तक थे, उनका कद लगभग ५ फीट ८ इंच होना चाहिए ! मुझे उनका साधारण, आकर्षक और मुस्कुराता चेहरा तथा चमकता हुआ मस्तक आज भी याद है ! मैं स्वयं को आज अत्यंत ही गौरवान्वित अनुभव करता हूँ कि मैं उन चंद व्यक्तियों में से एक हूँ, जिन्हें स्वतंत्र भारत में सुभाष जी का आर्शीवाद प्राप्त हुआ है और मुझे इससे प्रेरणा भी मिलती है ! यही क्या कम है जो उन पर पुस्तक लिख रहा हूँ, मुझे तो ऐसा लगता है कि कोई दैवीय अद्रश्य शक्ति मुझसे यह सब लिखवा रही है नहीं तो लेखन में मैं इतना परिपक्व नहीं !

मुझे कम से कम यह तो संतोष है कि मेरी आने वाली पीदियाँ मेरे बारे में गर्व अनुभव करेंगी और दूसरों को यह कहानी सुनाएंगी ! मैं सही मायने में इस तथ्य को दुनिया को कहने के लिए, भारत सरकार के किसी भी भय के बिना, अवश्य कोई दैवीय शक्ति ही प्रेरित कर रही है जो मैं किसी भी मुसीबत का सामना करने के लिए तत्पर हूँ परन्तु यदि सत्य को उजागर करना है तो हर परिस्थिति, हर कष्ट के लिए तैयार रहना ही होगा ! सत्य की यही परिणति होती है !

मैं याद करता हूँ कि प्रत्येक बार जब भी मेरी सेवाओं की आवश्यकता होती थी तो उनका सेवक टैक्सी स्टैंड पर, टैक्सी लेने के लिए मेरे पास आता था ! तब मैं सेवक के साथ जब निवास पर पहुंचता था तो वह सेवक आधी बाल्टी पानी की लेकर आता था, जिसमें कटे हुए नीम्बू पानी में पड़े होते थे ! तब वह सेवक मेरी कार की अगली सीट से पीछे का सारा हिस्सा, पिछली सीट, दरवाजों के गत्ते के कवर तथा छत को उन नीम्बू से मल- मल कर साफ़ कर देता था, इस तरह हमारी कार की सफाई हो जाती थी, हम उससे कहकर सारी छत साफ़ करवा लेते थे (उस ज़माने में सीटें, छत आदि सब रेक्सीन की होती थीं) तथा अधिक सफाई मांगती थीं ! यद्यपि मैं मन ही मन उसके इस कृत्य पर हंसता था और सोचता था कि यह सब ढोंग ही तो है जो सफाई का इतना नाटक हो रहा है ! परन्तु यह सफाई का कारण तो कुछ और ही था जिसका वर्णन मैं बाद में करूंगा !

इस सफाई के उपरांत वह सेवक साफ़ धुली हुई सफ़ेद चादरें लेकर आता था जिनसे वह कार की पिछली सीट, दरवाज़े और मेरी ड्राईवर सीट के पिछले हिस्से को पूर्णत: कवर (ढँक) कर देता था ! इस काम के समाप्त हो चुकने पर ही स्वामी जी आते थे ! वह अपने हाथों और भुजाओं को ढंकने के लिए केसरी या सन्तरी-से रंग का दुशाला या ऐसा ही कोई कपडा रखते थे ! तब वे भीतर बैठते थे और जहां जाना होता था, सेवक मुझे बोल देता था ! अपना कार्यक्रम पूर्ण करने पर हम वापस आ जाते थे, जब तक मेरी कार स्वामी जी कि ड्यूटी (सेवा) में होती थी, मैं खडी कार में नहीं बैठता था ! सेवा समाप्त होने पर स्वामी जी मुझे सेवक द्वारा मेरे पैसे जो मेरे निश्चित किराए से लगभग दो-गुना या और अधिक ही होता थे, बिना मेरे मांगे ही दे दिए जाते थे ! अत; मैंने उन स्वामी जी के बारे में जानने की कोशिश कभी नहीं की थी !

और मैंने प्रयत्न इसलिए भी नहीं किया क्योंकि देहरा दून के नज़दीक ही के पवित्र स्थान हरिद्वार और ऋषिकेश में ऐसे अमीर साधुओं की कोई कमी नहीं है जिनकी सम्पत्ति लाखों-करोडों में है ! ऐसे साधू अब भी हैं परन्तु वहाँ के जन-मानस में इनकी कोई इज्ज़त नहीं है !

मेरी आँखों पर भी धन का ही तो पर्दा था जो मैंने किसी बात पर ध्यान नहीं दिया था कि वह (स्वामी जी) ऐसा क्यों कर रहे थे ? गाडी के सीट कवरों को नीम्बू से मल-मल कर धोने का क्या कारण था ? फिर सीटों को सफ़ेद चादर से ढंकने का क्या मतलब ? इन सब सवालों का जवाब तुरंत ही वहीँ खड़े-खड़े ही, (१९४ राजपुर रोड) एकदम आ गया ! हे ईश्वर ! वह (स्वामी जी) अपनी अँगुलियों की छाप को छिपाना चाहते थे ! अपने जीवन में विज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद भी मैं न समझ सका ! मैं कितना मूर्ख था ! नीम्बू में उपस्थित तेजाब, अँगुलियों के निशान लेने वाले रसायन से प्रतिक्रिया कर उसे निष-प्रभावी बना देता है !

चलिए अब मैं फिर से अपनी मुख्य कहानी पर आता हूँ ! इन स्वामी जी ने ११० दिन की निरंतर समाधि ली ! जाहिर है कि वे ऐसी समाधि लेने के अभ्यासी थे ! ९३ वे दिन उनकी गर्दन की एक नस से खून की एक बूँद का रिसाव हुआ ! रक्त की बूँद को देख कर सेवक सकते में आ गए परन्तु चूंकि समाधिस्थ शरीर को छेडा नहीं जाता है, (राजा तक्षक की कहानी इसका एक ज्वलंत प्रमाण है) अत: फौरन ही समीप स्थित माँ आनंदमयी के आश्रम से संपर्क किया गया ! वहाँ से उनके एक शिष्य को बुलाया गया, वे शिष्य कोई और न होकर जाने-माने योगी श्री शिव बालयोगी जी थे ! उन्होंने ध्यान लगाया और थोड़ी देर बाद ही (नेताजी सुभाष चन्द्र बोस) की मृत्यु की घोषणा कर दी ! तब यह समाचार भारत के प्रधान-मंत्री, राष्ट्रपति को भेज दिया गया जहां से उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को उचित कार्रवाई व आवश्यक व्यवस्था करने के लिए कहा गया होगा ! तब उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महोदय ने ही राजपुर, देहरा दून को वायरलेस सन्देश द्वारा १९४ राजपुर रोड पर, समुचित पुलिस व्यवस्था करने के निर्देश एवं शासकीय आदेश दिया होगा !

पुलिस के अतिरिक्त मैं ही ऐसा बाहरी व्यक्ति था जो इस भेद से परिचित था और वायरलेस सन्देश के बारे में जानता था ! मैं ही ऐसा पहला व्यक्ति था जो पुलिस के साथ ही आश्रम में पहुंचा था या यूं कहिए कि स्वामी शारदानंद जी (नेता जी) के मृत शरीर तक पुलिस वालों से भी पहले पहुँचने वाला व्यक्ति मैं ही था ! अभी तक प्रशासन ने स्थिति को अपने हाथ में नहीं लिया था अत: मुझसे कुछ भी न छुपा था ! यहाँ तक कि पुलिस वालों से भी पहले मैंने ही कुटिया में प्रवेश किया था ! अत: मैं ही इस घटना का चश्मदीद गवाह बना था !

कुटिया से बाहर आकर मैंने देखा कि गेस्ट हाउस की सीढियों पर ही (शायद २ सीढियां ही थीं), सेवकों ने दो फोटो नेताजी के, एक साधू वेश में और दूसरा उनकी वर्दी वाला ! पास ही उनका चिर-परिचित चश्मा, तथा नित्य प्रति उपयोग की कुछ वस्तुएं रखी थीं ! दोनों तस्वीरों में साम्यता स्पष्ट थी ! साफ़ पता चलता था कि दोनों तस्वीरें एक ही व्यक्ति की हैं !

जहां तक मैं समझता हूँ, सुभाष जी पर सदैव निगरानी रखी जाती थी ! उनके सेवकों में से भी कोई न कोई तो अवश्य ही भारतीय खुफिया विभाग से रहा होगा जिसने अविलम्ब उनकी मृत्यु की सूचना देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों तक पहुंचाई ! यद्यपि वे एकांतवास में रह रहे थे परन्तु निश्चित ही किसी अज्ञात स्त्रोत से उन्हें नियमित धन-राशि अवश्य प्राप्त हो रही थी जिससे उनकी रोजाना की आवश्यकता की पूर्ति होती थी ! अन्यथा वह किस प्रकार जीवित रह सकते थे और सेवकों का खर्च निर्वाह कर सकते थे ? उनका खर्च निश्चित रूप से भारत सरकार या किसी प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा उठाया जाता रहा होगा परन्तु सरकार को उनके भेद की निश्चित रूप से जानकारी थी !

अब प्रशासनिक आदेश द्वारा पवित्र साधू के मृत शरीर को उसी स्थान पर रखा गया जहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी तथा समाधि में बैठे थे, ताकि दिवंगत आत्मा को अंतिम श्रद्धांजली प्रस्तुत की जा सके ! इन दस दिनों के दौरान मैं प्रतिदिन वहाँ गया कुछ और अधिक जानने की उत्कंठा लिए हुए ! और वैसे भी पुलिस अफसर मेरा अभिन्न मित्र था, कोई रोक-टोक तो थी नहीं, अधर-उधर घूमने में और सेवक तो मुझसे परिचित थे ही !

इन दस दिनों में मैं अनेक महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट आगंतुकों से मिला, उनमें से श्री उत्तम चंद मल्होत्रा बहुत ही जाने-माने व्यक्ति थे ! मैं उनसे कई बार मिला और व्यक्तिगत रूप से उनकी बातें सुनीं ! वह ऐसे व्यक्ति थे जिनके साथ सुभाष ने मास्को जाते हुए ४७ दिन तक उनके ही एक ही कमरे के मकान में काटे थे ! उन्होंने मुझे अनेक बातें बताईं जैसे कि वे १९६१ से ही लगातार भारत सरकार को यह कहते आ रहे है कि यही स्वामी शारदानंद जी ही वास्तव में नेताजी हैं पर भारत सरकार अनसुनी कर देती है और उन्होंने मुझे १९६४ का वह फोटो भी दिखाया जिसमें सुभाष जी एक सन्यासी वेश में दिवंगत प्रधानमन्त्री नेहरू जी के पार्थिव शरीर के पास खड़े थे ! यह फोटो सर्वप्रथम बम्बई से छपने वाले साप्ताहिक अखबार 'ब्लिट्ज' में छपा था और मैंने इसे तब भी देखा था !

आज श्री उत्तम चंद मल्होत्रा जी जीवित नहीं हैं ! वह महान देश-भक्त थे ! यदि उनहोंने और फारवर्ड ब्लाक के मुस्लिम सदस्यों ने या भगतराम तलवार आदि ने सुभाष की सहायता न की होती या इसके विपरीत किसी ने भी अंग्रेजों को खबर कर दी होती तो आज के भारत का इतिहास बिलकुल बदल जाता और सुभाष की यह अदम्य वीर-गाथा आपके हाथों में न होती और शायद अंग्रेज भारत कदापि न छोड़ते !

एक कटु सत्य मैं और बताना चाहूँगा कि श्री उत्तम चंद मल्होत्रा जी ने नेता जी की पहचान प्रकट करने की भारी कीमत भी चुकाई थी! उन्हें फलाकाटा आश्रम में नेता जी के अंग रक्षकों तथा INA के भूतपूर्व   अधिकारयों द्वारा शारीरिक यंत्रणा (पिटाई) की गई थी जिससे वे भयभीत होकर अपना मुंह न खोलें लेकिन अगले वर्ष ही कलकत्ता में एक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने यह रहस्योद्घाटन सार्वजानिक रूप से कर दिया था! यह बात मुझे स्वयं कर्नल प्रीतम सिंह जी ने बताई थी!

वहीं मैं सुभाष जी की एक भतीजी से भी मिला, उनके साथ उनका एक नौजवान बेटा भी था ! वह थोड़े भारी बदन का, गोरा और अच्छे स्वास्थ्य वाला लड़का था शायद २०-२२ वर्ष की आयु का ! यदि वे कलकत्ता से अपने प्रियजन को श्रद्धांजली देने न आते तो कैसे यह आभास होता कि वे सुभाष के ही नाते-रिश्ते वाले हैं, और मृत व्यक्ति सुभाष चन्द्र बोस ही हैं ( एक और प्रमाण), वे देहरा दून उस समय की हावडा एक्सप्रेस से आये थे ! यदि वे सुभाष जी के रिश्तेदार न होते तो इतना लगभग हज़ार मील का सफ़र करके वे क्यों आते ? वे देहरादून शायद १६ -१७ अप्रैल को पहुंचे थे ! यद्यपि इतने लम्बे समय के अन्तराल से मैं उस महिला का नाम भूल गया हूँ परन्तु यादें अभी भी ताजा हैं ! यह तो अपनी याद के कुछ क्षण पाठकों के साथ बाँट रहा हूँ जिससे पाठक आंकलन करने के लिए तथ्यों का सही विश्लेषण कर सकने में आसानी हो !

अनीता बोस, जो सुभाष जी की बेटी हैं और उनकी आस्ट्रियन पत्नी से पैदा हुई थीं, वह भी वहाँ आई थीं और अपनी आँखों में आंसू भरकर उसने अपने पिता को श्रद्धांजली अर्पित की ! उसने अपनी पहचान प्रकट नहीं की थी (शायद ऐसा कोई आदेश हो) परन्तु मुझे मेरे स्रोतों से जानकारी मिल गई थी !

एक बात और कि फोटो खींचने की प्रशासन द्वारा अनुमति नहीं थी परन्तु पुलिस के अपने फोटोग्राफर सरदार जोगी जी, उन्होंने ने बहुत फोटो लिए जो सरकारी संपत्ति हैं और मेरे स्वयं जाकर मांगने पर भी उन्होंने कोई भी फोटो देने से मना कर दिया था ! उनका स्पष्ट उत्तर था कि इसके लिए पुलिस विभाग से अनुमति लेनी होगी ! मेरे स्वयं के भी सिख होने पर भी, उन्होंने कोई भी लिहाज करने से मना कर दिया था !

अब १० दिनों के पश्चात स्वामी शारदानंद जी (प्रिय नेता जी की) की अंतिम यात्रा उनके आश्रम १९४ राजपुर रोड, देहरा दून से प्रारम्भ हुई ! उनके पार्थिव शरीर को तिरंगे से सजा कर (ढँक कर) तीन ट्रक पी ए सी, (पुलिस आर्मर्ड कांस्टेबुलरी) द्वारा रक्षित काफिले द्वारा, तथा अनेक दूसरे सरकारी और गैर सरकारी, अनेक निजी वाहनों के साथ देहरा दून शहर से लगभग ४३ किलो मीटर दूर ऋषिकेश में पवित्र गंगा जी के पावन-घाट पर दाह-संस्कार के लिए ले जाया गया ! उनका पार्थिव शरीर चिता पर लिटा दिया गया और उन्हें सम्पूर्ण सैनिक व राष्ट्रीय सम्मान देने के लिए पुलिस के जवानों द्वारा २१ बंदूकों की सलामी दी गई और फिर उन जवानों ने दिवंगत आत्मा को सम्मान देते हुए अपनी बंदूकों को उल्टा किया तथा ससम्मान विदा दी ! तत्पश्चात चिता को अग्नि के सुपुर्द किया गया !

         नेता जी के अंतिम दर्शन, त्रिवेणी घाट, ऋषिकेश, देहरा दून ०९-०४-१९७७  

इस प्रकार का सम्मान अर्थात बंदूकों द्वारा अंतिम सलामी या तो मिलिट्री के शहीद जवानों, या राष्ट्र के ख्याति प्राप्त महत्वपूर्ण व्यक्तियों, या राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री आदि को दी जाती है परन्तु यहाँ तो यह महान सम्मान एक अनजान सन्यासी (?) को दिया गया था ! आम नागरिकों को यह सम्मान देने की प्रथा नहीं है !

सुभाष चन्द्र बोस इस सम्मान के पूर्णत: हक़दार थे ! वे आरजी हकूमते हिंद या PROVINCIAL GOVERNMENT OF INDIA के अध्यक्ष और INA के सुप्रीम कमांडर (भारत की प्रथम राष्ट्रीय सेना के सर्वोच्च सेनापति) थे ! उनकी इस सरकार को उस समय भी ९ देशों की सरकारों द्वारा मान्यता प्राप्त थी ! यदि दिवंगत व्यक्ति केवल एक सन्यासी मात्र ही होता तो किसी ने यह सम्मान नहीं देना था परन्तु भारत सरकार स्वामी शारदानंद जी के भूतकाल से पूर्णत: परिचित थी ! १९६२ में ही सुभाष जी के परम सहयोगियों द्वारा यह भेद खोल दिया गया था !

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी अनेक ख्यातिपाप्त सन्यासियों की मृत्यु हुई है परन्तु भारत सरकार ने क्या किसी को यह सम्मान दिया?

दिवंगत स्वामी शारदानंद जी केवल एक महात्मा ही नहीं थे, वास्तव में सुभाष चन्द्र बोस थे ! उन्हें उपरोक्त पूर्ण सैनिक व राजकीय सम्मान देकर तो सरकार ने स्वयं ही यह स्वीकार कर लिया था तो अब यह घोषणा करके उन्हें उचित मान्यता भी क्यों नहीं प्रदान करती ? जबकि संदेह की तो कोई गुंजाइश ही नहीं बची ?

केवल भारत में ही नहीं, अपितु सारे संसार में यह प्रथा है कि दाह-संस्कार तथा अन्य अंतिम क्रियाएं परिवार के सदस्यों द्वारा ही संपन्न किए जाते हैं जब तक कि दिवंगत कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति या अति महत्वपूर्ण न हो ! इस मामले में तो स्वामी शारदानंद जी का कोई ऐसा व्यक्तित्व नहीं था और न ही आधिकारिक तौर पर वे किसी उच्च पद पर रहे तो सरकार ने उनके अंतिम संस्कार का जिम्मा अपने हाथ में क्यों लिया और सभी खर्चे क्यों स्वयं वहन किए ?

यह सब क्या संकेत देते हैं, पाठक स्वयं ही अंदाजा लगा लें !

मैंने इस सत्य को जग जाहिर करने के अनेक प्रयत्न किए परन्तु सफलता नहीं मिली ! हिन्दू धर्म में जब कोई सन्यास ग्रहण कर लेता है तो वह भौतिकवाद की दुनिया को छोड़कर आध्यात्म से नाता जोड़ लेता है ! अब उसका एक नया जन्म होता है और वह एक नया नाम ग्रहण करता है, जो अधिकतर उसके गुरु द्वारा ही प्रदत्त होता है ! नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के आध्यात्मिक गुरु कौन थे या संन्यास की दीक्षा उन्होंने कहाँ से ली, यह तो मैं नहीं जानता परन्तु अब सन्यासी होने पर उनका नया परिचय स्वामी शारदानंद था !

टैक्सी व्यवसाय में रहते हुए मैं यह सत्य कथा अपने यात्रियों को अवश्य ही सुनाया करता था ! परन्तु सन् १९९२ में मैं दिल्ली के स्टेट्समैन अखबार के दफ्तर में भी गया और कोशिश की कि यह सत्य कथा छपवा सकूं परन्तु कोई सबूत न होने के कारण उन्होंने कोई सहयोग न दिया ! फिर १९९६ में जिस दिन संसद के पटल पर मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट रखी गई, उस दिन मैंने इंडिया टी वी के श्री रज़त शर्मा से उनके मोबाइल फोन पर संपर्क करने की कोशिश की परन्तु उनकी अस्सिस्टेंट ने भी कोई सहयोग नहीं दिया था ! अत: चारों और से निराश होकर मैं शांत बैठ गया कि कोई सुनता तो है नहीं परन्तु फिर भी किसी सुअवसर की तलाश में मैं लगा रहा !

ईश्व्ररीय कृपा से ऐसा सुअवसर मिला मुझे सन् २००५ के अंत में, जब मैंने एक रिपोर्ट पढी कि देहरा दून के कुछ प्रतिष्ठित व्यक्ति इस सत्य को जग जाहिर करने के लिए प्रयत्नशील हैं तो मैंने उनसे संपर्क किया ! शनै:शनै: इस संस्था, उत्तराखंड मिशन नेताजी देहरादून, के अनथक प्रयासों एवं सहयोग से हमने चारों और अपने प्रयत्न प्रारम्भ किये और कई टी वी चैनलों ने भी हमारी आवाज़ को बुलंदी दी, हमसे मीडिया ने काफी सहयोग किया और नेट पर भी हमें अच्छा महत्व प्राप्त हुआ ! अब हमें गर्व महसूस हो रहा है जब हम अपने प्रयत्नों को सार्थक होते हुए देख पाएंगे- अपनी इस पुस्तक के माध्यम से भारतीय जनता को सत्य से अवगत कराने का यह एक तुच्छ, परन्तु हमारा, हमारे मिशन का तथा मिशन के सभी सदस्यों का यह एक महा-प्रयास है !




हमने इस पुनीत कार्य के लिए स्वामी रामदेव जी से भी संपर्क किया कि शायद वे जो देश-भक्तों और देश-भक्ति की बड़ी बड़ी बातें अपने प्रचार व प्रसार माध्यमों से भारतीयों में देश प्रेम की भावना जाग्रत करने की कोशिश करते हैं, उन्होंने ने भी आज तक हमें कोई सहयोग नहीं दिया ! कारण कि वे अब एक व्यवसायी है और उनके भी अपने स्वार्थ हैं ! कल को वे भी इसी सरकार को या इसका स्वतंत्र रूप से प्रभार सँभालने के लिए प्रयत्नशील हैं तो वह हमारा सहयोग क्यों करेंगे- उनके अपने स्वार्थ हैं !

अब हमारा एक ही ध्येय है, एक ही मिशन है कि पूज्य नेताजी ने स्वामी शारदानंद जी के रूप में जहां अपने अंतिम सांस लिए, हम वहां एक भव्य स्मारक बनवा सकें जो उत्तराखंड की शान हो और दुनिया के सभी देशों से सुभाष के श्रद्धालु इन्हें अपनी अंतिम श्रद्धांजली देने देहरादून आयें और वे यह जान सकें कि सुभाष के जीवन की जो यात्रा २३ जनवरी १८९७ को कटक(उडीसा) से प्रारम्भ हुई उसका अंत १३ अप्रैल १९७७ को देहरा दून (उत्तराखंड) में हुआ !



यही अंतिम सत्य है !


इस स्मारक से उत्तराखंड का नाम भी अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के नक्शे पर होगा और यह स्मारक उत्तराखंड के मुकुट में एक और हीरा जड़ कर, भाल को सुशोभित करेगा !

अत: हम प्रशासन से यह प्रार्थना करते हैं कि उपरोक्त भूमि (१९४ राजपुर रोड देहरादून) हमें सौंप दी जाए जिससे हमारा मिशन जनता के सहयोग से इस अभूतपूर्व कार्य को अंजाम दे सके !
हम सभी उत्तराखंड मिशन नेताजी, देहरादून के सदस्य अपने चेयरमैन / अध्यक्ष श्री ओमप्रकाश शर्मा जी के नेतृत्व एवं उत्कृष्ट निर्देशन में कार्य कर रहे हैं !

सभी तथ्यों के विश्लेषण करने पर कुछ अति-महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आ खड़े होते हैं जिनका उत्तर हम सभी भारतवासी, अपनी सरकार से चाहते हैं, सिर्फ जांच आयोग बिठा देने से ही कुछ नहीं होता ! ये आयोग तो केवल जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए ही बनाए जाते है, इनको तो पहले से रिमोट कंट्रोल से निर्देशित कर दिया जाता है कि तुम्हारे आयोग द्वारा की गई जांच का खुलासा क्या होगा तो कोई कितने भी सबूत पेश करता रहे, जब परिणाम देना ही नहीं या सरकार के कहे मुताबिक ही देना हो तो -सब बेकार है!


महत्वपूर्ण विस्तृत प्रश्नमाला :-

१)- सुभाष चन्द्र बोस जब रूस की साइबेरिया की यार्क-तुस्क जेल में खिल्सई मलंग के नाम से सेल नंबर ४६५ में बंद थे तो क्या भारत सरकार ने यह जानने की कोशिश की कि जिस (उपरोक्त) व्यक्ति के बारे में स्टालिन की बेटी, स्वयं कर्नल.प्रीतम सिंह तथा रूस में भारत के राजदूत श्री सत्यनारायण सिन्हा जैसे प्रतिष्ठित एवं महत्वपूर्ण व्यक्ति बताते रहे हैं कि वे सुभाष बोस थे तो भारत सरकार ने क्या इस विषय में कोई जांच की ? यदि हाँ तो इसके क्या परिणाम थे ?

२)- जब यह सिद्ध हो चुका है कि नेता जी की मृत्यु हवाई दुर्घटना में नहीं हुई तो सवाल उठता है कि फिर नेताजी कहाँ अलोप हो गए ? इस प्रश्न का उत्तर जानना प्रत्येक भारत वासी का अधिकार है कि वह यह जाने कि आखिर १८ अगस्त १९४५ को क्या हुआ था?







३)- श्रीमती पूरबी राय, जो रूस में रिसर्च कर रही थीं और जिन्होंने यह दावा किया है कि १९४६ में सुभाष के भविष्य के बारे में रूस के स्टालिन और तत्कालीन विदेश मंत्री वयाचेस्लेव मोटोलोव के बीच एक मीटिंग हुई जिसमें सिर्फ सुभाष के भविष्य को लेकर बात हुई ! जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सुभाष बोस १९४६ में जीवित थे और रूस में थे ! इसका प्रमाणित विवरण सोवियत सेना के अभिलेखागार में है (कतिपय राजनीतिक एवं निहित स्वार्थों के कारण अब रूस इसे नकार रहा है), इससे एक संकेत और मिलता है कि शायद इस भेद के खुलने पर ही सुभाष को जेल भेजा गया हो ?

४)-जब साइबेरिया से खिल्सई मलंग (सुभाष बोस) को रिहा किया गया होगा तो उसकी नागरिकता प्रमाणित करने के लिए भारत सरकार ने कुछ प्रमाण अवश्य ही रूसी सरकार को सौंपे होंगे ? भारत के गृह मंत्रालय ने वे दस्तावेज़ विदेश मंत्रालय को भेजे होंगे और फिर विदेश मंत्रालय ने यह दस्तावेज़ रूस की सरकार को सौंपे होंगे तो क्या मुखर्जी कमीशन ने कोई पूछताछ की ? नहीं क्योंकि यह रिपोर्ट मेरे पास है !

५)- जो कैदी खिल्सई मलंग रूस की हिरासत में था, क्या था उसका चरित्र चित्रण ? उन्हें क्यों गिरफ्तार किया गया था और उनका दोष क्या था ? क्या भारत सरकार ने रूसी अधिकारियों से उनकी कोई फोटो माँगी थी ? और कि वे छूटने के बाद कहां चले गए ? इस सम्बन्ध में रूस सरकार से क्या कोई जानकारी हासिल करने की चेष्टा कभी की गई ? मुखर्जी आयोग ने तो नहीं की तो क्या किसी और अधिकारी ने कभी ?

६)-हम बचपन से यह सुनते आये हैं कि सुभाष बोस, मित्र राष्ट्रों द्वारा युद्ध अपराधी घोषित किए गए थे परन्तु मुखर्जी आयोग ने भी यह (भारतीय गृह मंत्रालय के अनुसार) यह अफवाह बताया है और इससे इंकार किया है, यह स्पष्ट कर दिया गया है कि नेताजी किसी युद्ध अपराध में घोषित अपराधी नहीं हैं तो इतने वर्षों तक इस अफवाह का खंडन क्यों नहीं किया गया ? जस्टिस मुखर्जी की रिपोर्ट-हवाला; (Vol.IIA Page 135 Coloum 18)

७)-यदि स्वामी शारदानंद जी सुभाष बोस नहीं थे तो भी मुखर्जी आयोग ने यह जानने की कोशिश क्यों नहीं की कि उन्हें आश्रम बनाने के लिए १०० एकड़ भूमि किसने दी ? यदि ख़रीदी थी तो स्वामी जी के पास इतना पैसा कहां से आया ? आखिर वे सन्यासी कब बने थे ? उनका सन्यास ग्रहण करने से पूर्व का क्या परिचय था? आदि !

८)- क्या मुखर्जी आयोग ने श्री उत्तम चंद मल्होत्रा के परिवार से संपर्क किया जो कि दिल्ली के कालका जी क्षेत्र में रह रहा है ? क्या कोई सबूत (फोटोग्राफ, या कोई दस्तावेजी साक्ष्य) प्राप्त करने की चेष्टा की ? मल्होत्रा जी के दावे को सिद्ध करने का कोई दस्तावेजी सबूत ?

९)-हम उत्तराखंड मिशन नेताजी देहरादून (उत्तराखंड) के सभी सदस्य विश्वास रखते हैं और सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं कि स्वामी जी सुभाष बोस ही थे, परन्तु भारत सरकार सदैव से ही इंकार करती आ रही है ! ठीक है, मान लेते हैं सरकार की बात हम ! तो फिर सरकार यह स्पष्टीकरण दे कि १३ अप्रैल १९७७ को जिन स्वामी शारदानन्द जी का स्वर्गवास १९४ राजपुर रोड देहरा दून में हुआ था, उनके निधन पर यू पी के गवर्नर महोदय ने किस संदर्भ में उन्हें वी आई पी बोला था ? उनके वी आई पी का क्या स्टेटस (रुतबा) था ? उनकी पहचान क्या थी ? और उनके निधन पर पुलिस की समुचित सुरक्षा का आदेश क्यों दिया गया था ?

१०)- स्वामी शारदानंद जी के पार्थिव शरीर को राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे में क्यों लपेटा गया था ? उनके दाह-संस्कार पर उन्हें पूर्ण सैनिक व राजकीय सम्मान किस अधिकार से दिया गया था ! उनके अंतिम दर्शनों के लिए उनके पार्थिव शरीर को १० दिनों तक के लिए जनता की श्रद्धांजली के लिए क्यों रखा गया जबकि देहरादून में उनके आश्रम के बारे में बहुत ही कम लोग जानते थे !

११)- उनके विश्वसनीय साथी डाक्टर रमणी रंजन दास जब स्वामी जी की अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने लगे तो उनहोंने कहा कि, "नेता जी ! आप ने जो सेवा कार्य मुझे सौंपा था मैंने आज आप की अस्थियों को गंगा जी में प्रवाहित करते हुए पूर्ण निष्ठां से सम्पन्न किया है !" पास ही में श्री इंदर पाल सिंह जी, तत्कालीन एस ओ राजपुर, देहरादून भी खडे थे, तब इंदर पाल सिंह जी ने डाक्टर रमणी रंजन दास से यह कहा भी था कि आज तक तो आप मुझसे झूठ बोलते आए हैं कि स्वामी जी, सुभाष बोस नहीं थे परन्तु आज आप की कही बात से मुझे यह यकीन हो गया है ! ऐसा उन्होंने स्वयं बताया है !

१२)- यद्यपि जस्टिस मुखर्जी, पूछताछ के सिलसिले में देहरादून तो आए परन्तु केवल खाना-पूर्ति के लिए ही ! क्योंकि जहां जहां से उन्हें सबूत मिल सकते थे, वे वहाँ गए ही नहीं ! वे केवल कर्नल प्रीतम सिंह जी से उनके निवास डोईवाला, देहरादून में मिले और एक रात देहरादून में बिता कर वापिस हो लिए ! न तो वे स्वामी जी के आश्रम १९४ राजपुर रोड गए और न ही किसी अन्य व्यक्ति से कोई पूछ ताछ की !

नेता जी के भाई को विश्वास था कि उनकी मृत्यु हवाई दुर्घटना में नहीं हुई थी! 

सरत बोस के पोते चन्द्र बोस ने भी यह कहा था कि उसके पिता अमिया नाथ बोस ने उसको कहा था कि उनके दादा जी रहमान के द्वारा दिए गए बयान पर सशंकित थे, चन्द्र बोस और रमिया राय ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया था कि नेताजी की हाथघड़ी (Wrist watch) जो कर्नल हबीबुर रहमान ने उन्हें दी थी, उसने सरत चन्द्र बोसे की शंका को पुख्ता कर दिया था!

"मेरे दादा जी ने यह हाथ घडी  लंदन की एल प्रयोगशाला में जांच के लिए दी और उस के पट्टे पर जलने के निशानों की सत्यता परखने के लिए कहा ! प्रयोगशाला ने अपनी रिपोर्ट में जलने की वजह नहीं बताई परन्तु कहा कि ये निशान तेजाब द्वारा बने हैं, न कि जलने से, पाठकों को यह बता दूँ कि हवाई दुर्घटना में नेता जी की मृत्यु का कारण तीसरे दर्जे से जलने को बताया गया था!

अत: सरत बोस को यह पक्का विश्वास हो गया था कि उनके भाई ने हवाई दुर्घटना में अपनी मृत्यु की अफवाह जान बूझ कर उड़ाई थी और वे सुरक्षित बच निकले थे!" 



Col. Pritam Singh and Sh. R.N.Sharma

कर्नल प्रीतम सिंह जी तो INA के अन्य साथियों की तरह गोपनीयता की शपथ से बंधे थे अत: उन्होंने सच नहीं बोला और सिर्फ उनकी गवाही को ही सत्य मानकर जस्टिस मुखर्जी वापिस हो गए ! जबकि असली सत्य तो १९६२ में ही इन्हीं स्वामी शारदानंद जी के बारे में सुभाष के सहयोगी बोल चुके थे !

१३)- यही कर्नल प्रीतम सिंह जी ने १२ नवम्बर २००१ में एक पत्र उत्तरांचल के गवर्नर को लिखा था जब आश्रम की भूमि माफिया (इंदर सिंह) द्वारा कब्ज़ा कर ली गई थी ! इस संदर्भ में कर्नल प्रीतम सिंह जी ने एक टेलीग्राम भी भारत के महामहिम राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री को भेजा था जिसमें उनसे अविलम्ब हस्तक्षेप कर आश्रम की भूमि को भू-माफिया इंदर सिंह से बचाने की अपील की गई थी ! आश्रम का संदर्भ देते हुए उन्होंने लिखा था कि, "आश्रम से भारत के गौरव के प्रष्ठ जुड़े हैं !"

जब मैंने अपने मिशन के अन्य सदस्यों श्री ओम प्रकाश शर्मा जी तथा श्री आर ऍन शर्मा जी, कर्नल साहब के बेटे ( राणा रुपेंदर सिंह) के सामने यह पूछा कि वे बताएं कि आश्रम से भारत के गौरव का क्या सम्बन्ध है और उनके सामने ही उनकी भेजी हुई टेलीग्राम की प्रतिलिपि रख दी तो वे चुप्पी लगा गए थे !





मैंने उनके गिरते स्वास्थ्य के कारण अधिक जोर नहीं दिया था परन्तु यह तो आभास हो गया था कि वे सत्य छुपा रहे हैं !

१४)-श्रीमान पी के सेनगुप्ता जो कि जस्टिस मुखर्जी के सचिव थे, श्री एस एस पाधेय जी के दावों को परखने के लिए अमरावती, महाराष्ट्र में तीन दिनों तक ठहरे ! यद्यपि आयोग द्वारा उन्हें आश्वस्त किया गया था कि वे समय आने पर अपने विचार पेश करेंगे परन्तु वह समय फिर कभी नहीं आया ! उन्होंने खोसला कमीशन के सामने भी अपने सबूत रखने की इजाज़त मांगी थी परन्तु साथ ही यह शर्त भी लगाईं थी कि वे अपनी गवाही कैमरे के सामने ही देंगे जिससे कोई मुकर न सके, इस पर खोसला कमीशन ने उनकी गवाही नहीं ली थी !

दोनों कमीशन सत्य से परिचित थे परन्तु भारत सरकार के दबाव में उन्होंने किसी न किसी बहाने से इसे अनदेखा कर दिया ! उन्हें भी यह ज्ञात था कि स्वामी शारदानंद जी ही वास्तव में सुभाष बोस हैं ! अत: ऐसी किसी गवाही को स्वीकार नहीं किया जो फोटो, डिक्टेशन या दस्तावेजी सबूत जैसे कुछ हस्तलिखित लेख आदि देने के योग्य हो ? क्यों ?

जबकि पाधेय जी के पास ये सब सबूत मौजूद हैं !


जस्टिस मुकर्जी से कुछ अन्य ज्वलंत प्रश्न ;

1)- क्या वे 194 राजपुर रोड पर गये थे जहाँ उपरोक्त स्वामी शारदानन्द उर्फ़ नेता जी का देहावसान हुआ था?

2)- क्या उन्होंने प्रशासन से तथ्य एकत्रित किये थे कि स्वामी शारदानंद जी की मृत्युपरांत यू पी के राज्यपाल ने जो वायरलेस संदेश भेजा, वह क्या था? और क्यों प्रशासन ने उनकी मृत देह को जनता के दर्शनार्थ 10 दिनों तक रखने का आदेश दिया? क्यों प्रशासन ने उनके अंतिम संस्कार का प्रबंध अपने हाथों में लिया? किसके आदेश से यह अंतिम संस्कार सरकारी खर्चे एवं प्रबंध के अधीन हुआ? इन दस दिनों में स्वामी शारदानंद जी को श्रधांजलि देने आने वालों में से बाहर से (विदेशों से तथा देश के अन्य भागों से आये लोगों के परिचय एवं अन्य जानकारी) का रिकार्ड कहाँ है? किसके आदेश से उन्हें मृत्युपरांत 21 बन्दूकों की सलामी दी गई? एवं किसके आदेश से उनकी मृत देह को राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक तिरंगे झन्डे में लपेटा गया?

3)- क्या जस्टिस मुकर्जी ने अपने आने की सूचना क्षेत्रीय समाचार पत्रों में छपवाई थी और क्या देहरा दून  के निवासियों से पूछा था कि यदि किसी के पास कोई विवरण, जानकारी, कोई पत्र या अन्य कोई सबूत हो तो वे इनसे संपर्क करें? 

4)- क्यों जस्टिस मुकर्जी सिर्फ कर्नल प्रीतम सिंह जी के गाँव खैरी (डोईवाला) गए, रात्रि विश्राम किया एवं अगली सुबह ही ट्रेन पकड़ी और वापिस हो लिए? क्यों नहीं नेता जी के निवास पर जाकर कोई जानकारी एकत्रित करने का प्रयास किया? 

5)- क्या जस्टिस मुकर्जी ने कर्नल प्रीतम सिंह जी से पूछा कि उन्होंने 194 राजपुर रोड की भूमि को इंद्र सिंह नामक भू माफिया द्वारा अधिग्रहण करने पर --"जो टेलीग्राम कर्नल द्वारा भारत सरकार के प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और गृह मंत्रालय को भेजा था, उसमें " इस आश्रम को देश के गौरव से संबंधित बताया था" तो देश का यह गौरव किस ओर इशारा करता था, इसमें ऐसा क्या गुप्त सन्देश था जो कर्नल प्रीतम सिंह ने इस देश के राष्ट्र प्रमुखों को आगाह किया था?"

आज भी यह भूमि अधिग्रहित की जा चुकी है और प्रशासन लापरवाह है! 

क्या वे उपरोक्त सहज प्रश्नों का उत्तर देने का कष्ट करेंगे?

श्री सत्यनारायण सिन्हा (रूस में भारत के राजदूत) को जब यह ज्ञात हुआ कि सुभाष, रूस में हैं तो वह यह समाचार देने ख़ुशी-ख़ुशी श्री नेहरू के पास आए परन्तु उनकी आशा के विपरीत नेहरू ने उनको डांट दिया था जिससे वे आश्चर्य चकित रह गए थे ! उसके बाद उनके आपसी सम्बन्ध कभी मधुर नहीं रहे !

SWAMI SHARDANADA JI alias NETAJI SUBHASH CHANDRA BOSE.

हम स्वेतलाना (स्टालिन की पुत्री) के बयान को भी अनदेखा नहीं कर सकते जो कि उसने भारत में शरण मांगते समय दिया था और यही रह्स्योदघाटन किया था कि सुभाष बोस जीवित हैं और वे रूस में हैं , इस पर भारत सरकार चिढ गई थी और उसने उन्हें राजनीतिक शरण नहीं दी थी और वे इटली चली गई थीं !
मैंने जो यह सवाल उठाए हैं वे इस पुस्तक को लिखते हुए ही स्फुरित हुए हैं क्योंकि सुभाष बोस के जीवन से और इस विषय में की जाने वाली किसी भी जांच से ये प्रश्न जुड़े हैं, जो पाठक गण इनका विश्लेषण करेंगे, उन्हें स्वयंमेव ही इनके पीछे छिपे रहस्य अनावरित होते दिखाई देंगे ! सारी की सारी टूटी हुई कडियाँ यही साबित करती हैं कि स्वामी शारदानंद जी ही वास्तव में हमारे प्रिय, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस थे !


फिर भी यदि किसी जिज्ञासु पाठक के मन में कोई तर्क संगत प्रश्न या और आगे की परिचर्चा, उत्कंठा तथा अधिक जानने की अभिलाषा हो तो वे सज्जन मुझसे मिशन की वेबसाइट http://deathofsubhashbose.blogspot.com/ पर संपर्क करें या मुझसे सीधे बात करने के लिए कृपया फ़ोन करें :-


अजमेर सिंह रंधावा
0091-9818610698.
(प्रवक्ता एवं लेखक)
उत्तराखंड मिशन देहरादून
डी-२५८/५ नेहरू कालोनी, धर्मपुर
देहरा दून- 248001 (उत्तराखंड)

!! उपसंहार !!

अंत में, अपने पाठकों से मैं यह प्रार्थना करूंगा कि वे इस पुस्तक की कुछ अहम बातों को ध्यान में रखें ! स्वामी शारदानंद जी ही वास्तव में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ही थे, यह समझना और निष्कर्ष निकालना कोई मुश्किल काम नहीं है, इसके लिए हमें पहले तो यह जानना आवश्यक होगा कि क्या सुभाष बोस १९४५ के बाद वास्तव में जीवित भी थे ?


इस बात को जानने के पश्चात ही हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि यदि वे जीवित थे तो कहाँ और क्यों गायब हुए ?


मैंने इस पुस्तक में भी यह रहस्योद्घाटन किया है कि जब हमने सुभाष जी का, नेहरु की मृत देह के साथ लिया गया फोटो सरदार प्रीतम सिंह जी (भूतपूर्व कर्नल आई ऍन ) को दिखाया था जिसमें कि सिर्फ चेहरा ही दिखाई दे रहा था, उस फोटो को देखते ही उनके मुख से अनायास ही निकल गया था कि 'नेताजी और कौन' ! इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता था ! यह वही फोटो था जिसे मानने से खोसला कमीशन ने इंकार कर दिया था और इसे एक बौद्ध भिक्षु का बताया था क्योंकि खोसला जी ने तो सुभाष का भेद खोलना ही नहीं था !


इस उत्तर से यह तो प्रमाणित हो गया था कि नेताजी १९४५ के बाद जीवित थे और १९६४ में दिखाई दिए थे !
दूसरा प्रशन कि यदि वे जीवित थे तो कहाँ थे और जनता के समक्ष प्रकट क्यों नहीं हुए ? तो पाठकगणों यह भी हमने अपनी पूर्ण खोज से जान लिया है कि सुभाष जी को रूस की जेल से रिहा करने से पहले उनसे कुछ शर्तों का आजीवन पालन करने का वचन लिया गया था ! उन्हें (सुभाष) को इन शर्तों का पालन भी अवश्य ही करना ही था (क्योंकि संसार में सभी यही जानते थे कि उनकी मृत्यु हो चुकी है) ! इस में प्रमुख शर्त थी कि वे और उनके साथी, कोई भी, कभी भी, कहीं भी यह भेद नहीं खोलेंगे और कि, उनकी पहचान गुप्त रहेगी !


सुभाष जो उस समय ६० वर्ष की अवस्था पार कर चुके थे, ने अपने अंतिम समय में, भारत-भूमि पर और अपने लोगों के बीच बिताने की इछा से यह शर्त स्वीकार कर ली ! अन्यथा देश से दूर अनजान धरती पर ही उनका अंत होता ! और कोई उनके बारे में कुछ जान पाता !


इस तरह सुभाष को ब्लेक मेल किया गया ! जीवन पर्यंत गुमनामी में जीवन व्यतीत करने को बाध्य किया गया ! उनके देश प्रेम का मजाक बनाया गया ! जो व्यक्ति देश की आज़ादी के लिए देश-देश मारा मारा फिरा, नन्ही बेटी और पत्नी को अपने से दूर विदेशों में भगवान भरोसे ही छोडा, दुबारा जिसने जीवन में उनकी शक्ल नहीं देखी, जिसने एक सेना का आधार रखा और दूसरी सेना को नेतृत्व दिया, अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए युद्घ किया ! उस की कीर्ति से डर कर, भयभीत हो कर, किस तरह उस महान व्यक्ति की मजबूरी और देश प्रेम की खातिर अपनों ने ही उसे ब्लेक मेल किया, इसका दूसरा घृणित उदाहरण इतिहास में सिवाय हिन्दुस्तान और कांग्रेस के, कहीं और नहीं मिलेगा !


अतः सुभाष देश प्रेम की खातिर यह अपमान भी सह गये ! उन्होंने संन्यास ले लिया और अपना नाम स्वामी शारदानंद रखा ! उनके सभी परिचित एवं भूतपूर्व सैनिक उनसे मिलने लगे ! उनके अति निकटतम सहयोगियों ने भी उनके रहस्य को आजीवन निभाने की प्रतिज्ञा ली ! जिन्होंने नहीं ली (जैसे मेजर सत्य गुप्ता और उत्तम चंद मल्होत्रा) उन्होंने रहस्योद्घाटन कर दिया !


इसके साथ ही कर्नल प्रीतम सिंह जी द्वारा २००१ में, प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति को भेजी टेलीग्राम में भी लिखा था कि देहरादून के, "आश्रम के पृष्ठ भारत के गोरव से जुड़े हैं" ! स्वयं ही उनका (सुभाष जी का) गौरव बखान करता है !


इन सब बातों से हमें कांग्रेस द्वारा, सुभाष के प्रति विश्वासघात और देशवासियों को दिया गया धोखा स्पष्ट झलकता है ! परदे के पीछे, सुभाष की मृत्यु पर उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान (शव को तिरंगे में लपेटना) से सुशोभित करना तथा, पूर्ण सैनिक एवं राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टि करनी, १९९२ में भारत रत्न प्रदान करना, (जिसे उनकी मृत्यु प्रमाणित होने के कारण वापस ले लिया गया)
कांग्रेस जनों की सुभाष के प्रति सदभावना तो प्रदर्शित करती है परन्तु सुभाष को ब्लेक मेल करके कांग्रेस ने अपने शासन को सुनिश्चित कर लिया ! यदि सुभाष सत्य में प्रकट हो जाते तो नेहरु का भविष्य खतरे में पड़ जाता, तब नेहरु भारत के प्रधान मंत्री नहीं रहते और ही कांग्रेस का शासन ! सत्ता एक तीसरी शक्ति फोरवर्ड ब्लाक या किसी भी अन्य नाम से सुभाष के हाथों में होती !


नेहरु जब लार्ड माउंटबेटन के साथ सिंगापुर की यात्रा पर थे तो सुभाष की तलाश की बात उन्होंने लार्ड माउंटबेटन से की, तो लार्ड माउंटबेटन ने उनको मना किया और कहा कि यदि सुभाष जाते हैं तो ऐसा होगा जैसे थाली में रख कर देश का शासन उन्हें सौंप देना ! यह सुनकर नेहरु भी उनकी बातों में गये, नेहरु का भी निजी स्वार्थ उन्हें सुभाष की तलाश करने से रोकने में सहायक हुआ ! यही कारण और उनके डर ने नेहरु को आई एन के सभी भूतपूर्व सैनिकों को भारतीय सेना या अन्य संगठनों जैसे पुलिस आदि में लेने से इंकार किया !


जबकि पाकिस्तान ने इन सभी INA के भूतपूर्व सैनिकों को सेवा में लिया !


नेहरु, सुभाष से भयभीत थे, उन्हें यही डर सदा ही बना रहा ! इसी डर ने ही नेहरु को, सुभाष के भारत भूमि पर आने और राजनीति से दूर रखने के लिए प्रपंच का सहारा लेना पडा ! सुभाष को भारत भूमि पर दुबारा प्रवेश करने के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी, और सुभाष को ब्लेक मेल किया गया कि वे आजीवन अपना मुंह नहीं खोलेंगे !


सुभाष को अपने भेद गुप्त रखने के लिए बाध्य किया गया !


कांग्रेस का यह कृत्य सदा के लिए उस पर एक दाग रहेगा !


अब भी यदि कांग्रेस चेत जाए और अपनी गलतियो से सबक लेते हुए सुभाष चन्द्र बोस को उचित सम्मान एवं मान्यता प्रदान करे और स्वामी शारदानंद जी ही वास्तव में सुभाष बोस थे, इस रहस्य को सार्वजनिक करे !


अंत में पाठकों को यह याद रखना चाहिए, कि इराक के अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के हमशक्ल थे परन्तु अमेरिका ने सिर्फ असली सद्दाम हुसैन को ही फांसी दी, कि उसके सभी हमशक्लों को ! इसी तरह भारत सरकार को भी असली नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के भेद का पता था और गृह मंत्रालय उनकी वास्तविकता से पूर्णत: परिचित भी था ! जिससे केवल असली नेताजी को उनके निधन पर (स्वामी शारदानंद जी के रूप में ) को ही सम्पूर्ण राजकीय व् सैनिक सम्मान दिया गया, बाकी अन्य किसी को नहीं ! चाहे फैजाबाद के भगवान जी हों या अन्य कोई भी ! इससे और अधिक महत्वपूर्ण सबूत भारत के देशवासियों को, इस देश की जनता को और क्या चाहिए ?


हम यही आशा करते हैं तथा अपेक्षा भी करते हैं कि देहरादून में उनका भव्य स्मारक बनवाने में हमें सहयोग प्रदान करे !


धन्यवाद !!





अजमेर सिंह रंधावा, 

0091-9818610698
E-mail ajmer.singh@rocketmail.com/
प्रवक्ता, उत्तराखंड मिशन नेताजी,

देहरादून,
(उत्तराखंड) !






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